सोच समझकर चुनें अपना प्रतिनिधि

गांव की सरकार बन जाने के बाद अब शहर की सरकार को चुनने की दरकार आन पड़ी है। शहर की गली-गली, कोना-कोना पोस्टर, बैनर से सजा-धजा पड़ा है। सारे पहलवान अपनी -अपनी ताल ठोंक रहे है, इसके साथ ही अपने जीवन भर की कमाई और स्वयं को भी निवेश करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। वहीं पिछले दिनों घोषित आरक्षण ने कुछ रंगीन सपने संजोये पुराने दावेदारों का अंकगणित बिगाड़ दिया तो नये-नये सूरमाओं का बीजगणित अंकुरित कर दिया है। अब देखना मजेदार होगा कि किसके भाग्य में कौन सी भाग संख्या से कौन भाग रहा है, कौन पीछे छूट रहा है।

ऐसा देखा गया है कि निकाय की राजनीती में कुछ लोग तो समाज सेवा के लिए प्रतिनिधि बनना चाहते हैं, वहीं कुछ लोग सिर्फ नाम पट्टीका खातिर जोड़-तोड़ करते रहते हैं। उन्हें सिर्फ स्टेटस सिंबल की दरकार रहती है। वो जो जिनकी गाड़ी के शीशे इसलिए बंद रहते थे कि कहीं धूल गाड़ी में प्रवेश ना कर जाये, वो भी आज गली-गली धूल फांक रहे हैं। एकमत कहें तो सभी अपने वोटों की गणित में मशगूल है।

चूँकि क्षेत्रीय चुनाव है, अतः मुद्दे भी सीधे जनसरोकार से सम्बंधित है। आवास, राशन, पेंशन, बिजली, सड़क, साफ-सफाई एवं नाली प्रमुख मुद्दे है तो आपके पूर्व के प्रमुख जनसेवी कार्य प्रतिनिधि चुनने के मापदंड है। कोरोनाकाल में लोंगो ने जिंदगी और मौत के बीच के भयावह दिन देखें है, तो राशन और शासन के बीच भी खुद को झूझता हुआ महसूस किया है। इनमें कुछ खुद की जान बचाने को कमरों में दुबक गये थे तो कुछ हरसंभव मदद के लिए सहारा बन खडे भी हुए हैं। किसी ने स्वार्थवश मदद की तो कोई संकट के समय संकटमोचक भी बना है।

लोकल चुनाव है तो एक-एक वोट भी कीमती है। किसी के वोट की कीमत दारू का पौआ है, तो किसी के लिए पूड़ी सब्जी हलुआ है। लेकिन इन सबमें वो अभिमानी भी है, जिनका स्वाभिमान ही सबकुछ है, उन्हें कुछ नहीं चाहिए लेकिन वो अपना अमूल्य वोट एक अच्छे प्रत्याशी को अवश्य देंगे। इस चुनाव में पैसा पानी की तरह बहता है, वहीं चुनाव के बाद मतदाता पानी के लिए भी तरसता है। इसलिए मेरा सभी से निवेदन है कि अपने-अपने वार्ड से ईमानदार, कर्मठ, लगनशील, शिक्षित एवं समाजसेवी प्रत्याशी को चुननें घर से अवश्य निकलें और मतदान जैसे महापर्व के सहभागी बनें।

बुंदेलखंड: बंजर भूमि, सियासी जमीन

यूपी विधानसभा के प्रथम दो चरणों के पश्चात अब बुंदेलखंड में सियासी बिसात बिछ चुकी है। यहां विधानसभा की 19 सीटें आती हैं, जिन पर वर्तमान में सभी सीटों पर सत्तारूढ़ पार्टी का कब्जा है। बुंदेलखंड में मतदाताओं के जातिगत आंकड़े देखें तो 27 फीसदी सामान्य, 43 फीसदी पिछड़े एवं 21 फीसदी हरिजन मतदाता रहते हैं। लगभग 1 करोड़ मतदाता क्षेत्र वाला बुंदेलखंड क्षेत्र आज भी विकास की मुख्यधारा से जुड़ नहीं सका है। यहाँ कृषि योग्य भूमि का अभाव तथा जल प्रबंधन सही ना होने के वजह से लोग मजदूरी पर आश्रित हैं, और मजदूर कल कारखानों के अभाव में महानगरों में पलायन करने को मजबूर हैं। अभी कोरोना काल में सूटकेस से बच्चे को लटकाये सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर महोबा की महिला की तस्वीर पलायन की हकीकत से रूबरू करा रही थी। आज भी हम जब सूखा, किसान आत्महत्या, बदहाली, बेरोजगारी और पलायन जैसे शब्दों को सुनते हैं तो स्वतः ही बुंदेलखंड की तस्वीर हमारे मन और मस्तिष्क में तैरने लगती है।

बुंदेलखंड स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात कांग्रेस का गढ़ समझा जाता था, लेकिन 1984 के पश्चात कांग्रेस की पकड़ यहाँ निरन्तर कमजोर होती चली गयी। इसके पश्चात क्रमशः बसपा और सपा ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में जहाँ बसपा और सपा को 7-7 सीटें मिली, वहीं भाजपा को सिर्फ एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था। लेकिन 2017 में भाजपा ने अन्य दलों का सूपड़ा ही साफ कर दिया। वर्ष 2016 में यहाँ वाटर ट्रेन का भेजा जाना एवं एक मीडिया रिपोर्ट में यहां घाँस की रोटियां खाने को मजबूर परिवार की तस्वीर ने यहाँ के विकास के सारे दावे खोखले साबित कर दिये थे। वर्ष 2009 में तत्कालीन यूपीए नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने यहां के विकास के लिये 7400 करोड़ का विशेष बुंदेलखंड पैकेज दिया था। जिसे तालाब पुनरुद्धार, कुंये, चैकडैम निर्माण, दूध डेयरियां, नलकूप योजना, कृषि उत्पादन मंडीयां में खर्च किया जाने का प्रस्ताव तैयार किया गया, लेकिन बाद में पता चला कि बुंदेलखंड पैकेज तो बकरियां ही खा गयीं।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी की कमान संभालते ही बुंदेलखंड को मुख्य विकास की धारा से जोड़ने का खाका तैयार कर लिया था। सड़क से लेकर औद्योगिक विकास तक की योजना यहाँ प्रस्तावित है। 14716 करोड़ की लागत से बन रहा बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे हो या औद्योगिक गलियारा और डिफेंस मैनुफैक्चरिंग कॉरिडोर जैसे बड़े बड़े विकास परियोजना प्रस्ताव हों। इसके साथ ही झांसी की गरौठा तहसील के जलालपुर एवं जसवन्तपुरा में 3000 एकड़ में प्रस्तावित अल्ट्रामेगा सोलर पावर ग्रिड का भी यहां रास्ता साफ हो गया है। कृषि सिंचाई हेतु जहाँ केन-बेतवा लिंक परियोजना पर काम हो ही रहा है। बुंदेलखंड की प्यासी धरती को स्वच्छ पेयजल आपूर्ति हेतु 10 हजार 131 करोड़ की लागत से हर घर नल योजना हेतु बजट भी उपलब्ध करा दिया गया हैं। वहीं चित्रकूट धाम मण्डल में जैविक खेती के प्रोत्साहन हेतु योजना तैयार करने के लिये मुख्यमंत्री जी द्वारा निर्देश दिये गए हैं। तमाम प्रस्तावित योजनाओं के बावजूद धरातल पर ना तो अभी तक डिफेंस कॉरिडोर उतर पाया है, ना ही झांसी की हवाई अड्डा नजर आ रहा है। झांसी मेट्रो का तो अभी तक डीपीआर ही नहीं बन सका है। वहीं बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे बुंदेलखंड के केंद्र बिंदु झांसी को छुए बिना ही चित्रकूट से इटावा निकल गया है। झांसी के एरच बांध का निर्माण रुका हुआ है तो सूती मिल सालों से बंद पड़ी है।

बुंदेलखंड में वैसे तो भाजपा और सपा में ही सीधी लड़ाई नजर आ रही है, लेकिन बसपा के प्रभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। वर्ष 2007 के चुनाव में सर्वाधिक 15 सीटें एवं साल 1989 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने सर्वाधिक 12 सीटें जीतकर अपनी मौजूदगी से अवगत कराया था, वहीं 2012 में भी अपने कोर वोटबैंक के दम पर सर्वाधिक 7 सीटें जीतकर सभी विरोधियों को शांत कर दिया था। अब परिस्थितियों में अब काफी परिवर्तन आया है। जहाँ अब नसीमुद्दीन सिद्दीकी, दद्दू प्रसाद और बाबू सिंह कुशवाहा जैसे प्रभावशाली नेता बसपा के साथ नहीं है। सपा ने भी 2012 के विधानसभा चुनाव हो या अभी हाल के जिला पंचायत चुनाव में अपने अधिक से अधिक सदस्यों को जिताकर बुंदेलखंड में अपनी मौजूदगी के पुख्ता सबूत दे दिए हैं, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यहाँ से विजय यात्रा निकाल चुके हैं। उन्होंने कृषि सिंचाई को मुफ्त एवं प्रत्येकघरेलू कनेक्शन धारक को 300 यूनिट फ्री बिजली प्रदान करने का दावे के साथ गरीबी व भुखमरी दूर करने का वादा किया है। कांग्रेस यहाँ कृषि विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज, प्रमुख बांध, प्रमुख ट्रेनों के ठहराव को अपनी प्रमुख उपलब्धि आज भी बतलाती है।वहीं बुंदेलखंड में आम आदमी पार्टी एवं एआईएमआईएम की मौजूदगी ने भी सभी प्रमुख दलों को चिंतित कर दिया है।

बुंदेलखंड में प्राकृतिक संसाधनों का कोई अभाव नहीं है, लेकिन इनका बेतहाशा दोहन ही प्रमुख समस्या है। यहाँ मोरम खनन व सत्ता संरक्षित रेतमाफिया सरकार को राजस्व की क्षति पहुँचाकर करोडों के बारे न्यारे हो रहे हैं। बुंदेलखंड में पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और एमएसएमई उद्योगों का नितांत अभाव अहम मुद्दा हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता किसको अपना भाग्यविधाता चुनते हैं।

पुरानी पेंशन: सुरक्षित भविष्य, सामाजिक सुरक्षा।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व में पेंशन के संदर्भ में की गयी ये टिप्पणी कि पेंशन किसी कर्मचारी को दी गयी भीख या सरकारी कृपा नहीं है, ये तो कर्मचारी का वो लंबित वेतन है जो उसे सेवानिवृति पश्चात सुरक्षित भविष्य और सामाजिक सुरक्षा के लिये प्रदान किया जाना आवश्यक है, इस पर मौजूदा सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए, आज प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गयी है। करीब 28 लाख कर्मचारी, शिक्षक और पेंशनर्स लगभग डेढ़ दशक से भी अधिक समय से पुरानी पेंशन बहाली हेतु अपनी विभिन्न तरीकों से मांग रखते आ रहे हैं। ये वो लोग हैं जो समाज में अपनी राय कायम रखते हैं, चुनाव में इनका रुझान जीत और हार का फैसला तय करता है। इनमें गुरुजन भी आते हैं तो कई लोग इन्हें प्रबुद्ध जन की भी संज्ञा देते हैं। निश्चित तौर पर इनसे जुड़ा कोई मुद्दा है तो प्रतिनिधि चुनने में इनकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। भले ही मौजूदा सरकार नई पेंशन योजना को कर्मचारियों के लिये हितकर बता रही हो, लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। जहाँ नई पेंशन योजना में ना तो सुरक्षित भविष्य की गारंटी है, ना ही सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन है। नई पेंशन के पश्चात जीपीएफ फंड को खत्म कर दिया गया है, जिसमें 12 प्रतिशत धनराशि नियोक्ता के द्वारा जमा की जाती थी। आज नई पेंशन में नियोक्ता एवं कर्मचारी के अंशदान को शेयर बाजार के हवाले कर दिया गया है। जिसमें कोरोना काल में हमने सेंसेक्स की तरह धड़ाम से गिरते हुए मेहनत के पैसे को घटते हुए देखा है। हम कह सकते हैं जहाँ ओपीएस डेफिनिट बेनिफिट स्कीम थी, तो एनपीएस डेफिनिट कॉन्ट्रिब्यूशन स्कीम है, जिसमें यदि पेंशन चाहिए है तो सेवानिवृति तक अपना अंशदान जमा करते ही रहना होगा, जो भी कॉर्पस तैयार होगा, उससे बीमा कम्पनी से एक एन्युटी खरीदनी होगी। जिससे प्राप्त ब्याज की धनराशि हमें पेंशन समझकर रख लेनी होगी। मतलब सरकार का नौकरी के बाद हमसे कोई सरोकार नहीं रहेगा, हमें खुद के भरोसे छोड़ दिया जाएगा। शेयर बाजार में सरकार हमारे पैसे को बिना हमारी सहमति के, बिना हमारी पसंद के यूटीआई, एसबीआई और एलआईसी के यूलिप प्लान में निवेश कर रही है। मतलब बहुतकुछ थोपा जा रहा है और सरकार एक गैर जिम्मेदार नियोक्ता की तरह अपने फरमानों का निर्वहन करा रही है। एक आरटीआई से मिली जानकारी से पता चला है कि सरकार इस पैसे का प्रबन्धन एवं निवेश भी समय से नहीं कर पाई है।

पुरानी पेंशन योजना को समाप्त करते वक्त ये तर्क दिया गया कि बहुत अधिक वित्तीय भार सहन करने में सरकारें समर्थ नहीं है। तकरीबन कुल बजट का 50 प्रतिशत हिस्सा कर्मचारियों, अधिकारियों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन में ही खर्च हो जाता है। वहीं करोड़ों रुपये की मूर्ति बनाने, सैकड़ों करोड़ रुपये विज्ञापन में खर्च करने से कोई वित्तीय भार नीति निर्माताओं को नजर ही नहीं आता है। एक ओर वोट खरीदने के लिये विभिन्न वर्गों को बिन मांगे ही पेंशन दी जा रही है साथ ही पेंशन राशि भी बढ़ाई जा रही है। सांसद, विधायकगण जहाँ दो-दो , तीन-तीन पेंशन का लाभ ले रहें हैं, साथ ही साथ वकालत, ठेकेदारी एवं अन्य व्यवसाय जैसे अन्य आय के स्त्रोत भी उनके पास मौजूद होते हैं। वहीं दूसरी ओर 35 से 40 वर्ष सेवा देने के बावजूद कर्मचारियों के बुढ़ापे की लाठी रूपी पेंशन को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। जिससे उसका वर्तमान अधर में और भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। ये सिर्फ शिक्षक, कर्मचारी और पेंशनर्स का मुद्दा नहीं है, ये उन प्रतियोगी छात्रों को भी प्रभावित करता है जो एक अदद सरकारी नौकरी की आस लगाये बैठे हैं और भविष्य में सरकारी लोकसेवक बनने जा रहे हैं।

पुरानी पेंशन बहाली के आंदोलन की सफलता अब कुछ दिखायी भी देने लगी है, क्योंकि सपा मुखिया अखिलेश यादव ने इसे अपने चुनावी मुद्दे में शामिल किया है, वहीं अन्य दलों का भी इसमें मूक समर्थन है। अन्य मुद्दे की भांति पुरानी पेंशन प्रमुख राजनीतिक चर्चा का विषय बन गयी है, क्योंकि ये शिक्षक और अन्य राज्य कर्मचारी जैसे लेखपाल, सींचपाल ग्राम-सचिव समेत चुनावी कर्मियों से जुड़ा मुद्दा है, जो ग्राम स्तर पर सीधे आम मतदाता से जुड़ा होता है एवं चुनाव में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए की केंद्र सरकार ने जब पेंशन निधि विनियामक अधिनियम 2003 को कानूनी जामा पहनाकर इसे लागू किया तो इसमें राज्यों के लिये अनिवार्यता की शर्त नहीं रखी गयी थी, लेकिन लगभग समस्त राज्यों ने वित्तीय भार को देखते हुए तुरंत ही अंगीकार कर लिया था। अपवादस्वरूप पश्चिम बंगाल एवं त्रिपुरा में आज भी पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू है। अखिलेश के पेंशन रूपी दांव से जहाँ योगी सरकार सकते में है, वहीं पेंशन की मांग की आस लगाए बैठे लाखों राज्य कर्मचारी आज भी उम्मीद के सहारे हैं। सत्तारूढ़ दल से उम्मीद इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि सत्ता के खातिर ही तमाम वादे एवं दावे किए जाते हैं। सरकार पुरानी पेंशन का यदि कर्मचारियों को तोहफा देती है तो वह अपने 14 प्रतिशत के अंशदान को भी विकास कार्यों में खर्च कर आवाम को लाभान्वित कर सकती है। कर्मचारियों के लिए सकारात्मक बिंदु ये है कि केंद्र और राज्य में समान दल की सरकार है तथा केंद्र में अभी अधिसूचना भी लागू नहीं है। केंद्र सरकार चाहे तो बजट सत्र में विधेयक लेकर शिक्षकों, कर्मचारियों एवं पेंशनर्स को खुशियों की सौगात देकर राजनैतिक लाभ हासिल कर सकती है।

टूटते रिश्ते

आज के इस समाज में वैवाहिक संबंध जहाँ परिवारों को जोड़ने के लिये बनाये गए हैं, वहीं अपवादस्वरूप कुछ दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। शादी उपरांत युगल मां बाप को त्यागकर अपनी अलग ही दुनिया बसा ले रहें है। वहीं कुछ रिश्ते जुड़ने से पहले ही टूटे जा रहे हैं। अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि इन सम्बन्धों में कुछ सामाजिक आकांक्षाएं ना सिर्फ रिश्ते तोड़ दे रहीं हैं वरन उस युगल को भी झकझोर दे रहीं हैं, जो इन सम्बन्धों में बंधने वाला होता है। जहां वर पक्ष के लोग स्वयं को वरीय मान लेते हैं तो वधू पक्ष स्वयं को स्वाभिमानी समझकर रिश्तों को झटका देते हैं, जिससे नुकसान उस युगल को पहुंचता है, जो सात जन्मों के बंधन में बंधने वाला होता है। कहते हैं रिश्ते भगवान बनाता है, और हम सिर्फ उसको मिलाते हैं, लेकिन एक वास्तविकता ये भी है कि बिटिया के माता-पिता सुयोग्य वर हेतु अक्सर बेरोजगार लड़के के बजाय सरकारी नौकरी वाले लड़के को वरीयता देते हैं, क्योंकि इसे रोज उतार चढ़ाव वाले बाजार में सुरक्षित निवेश समझा जाता है। ये भी एक प्रक्रिया का हिस्सा है कि सम्बन्धों से पहले लड़के और लड़की के गुण मिलाये जाते हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में प्रतिक्रिया की जगह छोड़ दी जाती है और उन पारिवारिक सदस्यों के गुण नहीं मिलाये जाते हैं, जिनके निर्णयानुसार ही ये पारिवारिक संबंध आगे बढ़ना होते है। लड़का-लड़की परिस्थितिवश सामन्जस्य बैठा भी लेते है, लेकिन वो कैसे सामंजस्य बैठाएंगे जो सामाजिक संकीर्णताओं में बंधे होते हैं, सामाजिक प्रतिष्ठा जहाँ प्रश्न चिन्ह बन जाती हैं। आज जहां दहेज(उपहार) अभिशाप है का स्लोगन बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ दिखता हैं वहीं हम एक ऐसे समाज मे जी रहे हैं, जहाँ बिटिया के भविष्य की चिंता सिर्फ सरकार नौकरी वाले लड़के को ढूंढकर दूर कर ली जाती है।

संबंधों का सागर विशाल है। एक कुशल नाविक वही है, जो तमाम हिचकोलों के बावजूद इस सागर में अपनी नाव पार ले जाकर ही माने और जब भी इस सागर में डुबकी लगाए, तो संबंधों का सबसे कीमती मोती निकालकर ही बाहर लाए। वह न केवल उसे निकाले, बल्कि उसे सहेजकर भी रख सके, उसकी हिफाजत भी करे, और उसका सम्मान भी करे, तभी नाविक की उपयोगिता सार्थक सिद्ध होगी। वूडी एलेन ने संबंधों की दुनिया पर काफी गहरा अध्ययन किया। उन्होंने स्त्री-पुरुष के संबंध की तुलना शार्क से की है। वह कहते हैं, शार्क की ही तरह किसी रिश्ते को आगे बढ़ते रहना चाहिए, नहीं तो उसके दम तोड़ने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। इसी तरह, मार्टिन लूथर किंग ने कहा था- एक सफल विवाह से प्यारा दोस्ताना रिश्ता और कोई  नहीं हो सकता है, लेकिन आधुनिक जीवन में सफल विवाह के कुछ बड़े शत्रु उभरकर सामने आए वह हैं- ईगो, दंभ और घमंड। इन तीनों के अर्थ में कुछ भेद जरूर हैं, लेकिन इनकी आत्मा एक है। इनका वार एक सा है और उनका असर भी एक सा ही होता है। जब तक ये तीनों जिंदा हैं, सफल विवाह भी दम तोड़ता नजर आता है। हम अपनी ईगो के चलते विवाह जैसे खूबसूरत रिश्ते की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकते हैं। इसके उलट अगर ईगो को ही बलिवेदी पर चढ़ा दिया जाए, तो विवाह जैसे संबंध हमारे जीवन में नई रोशनी भर सकते हैं। ईगो को टक्कर देने के लिए हमारे पास प्यार और त्याग रूपी हथियार हैं, क्योंकि अगर प्यार है, तो त्याग अवश्य होगा… और यदि त्याग है, तो रिश्ता कभी टूट ही नहीं सकता है, बल्कि वह मिठास से हमेशा भरा रहेगा। प्रत्येक इंसान देर-सबेर किसी न किसी संबंध में बंधता अवश्य है, और यह संबंध जितना गहरा होता है, उसका जीवन उतना ही संतुष्टि से भरपूर रहता है।

रक्तदानी शतकवीर गगन भैया

मौका दीजिये अपने खून को,
किसी और की रगों में बहने का।
ये एक लाजवाब तरीका है,
कई जिस्मों में जिंदा रहने का।

कहानी वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की नगरी झांसी जिले के छोटे से कस्बे बरुआसागर के निवासी गगन साहू की है। ये नवम्बर 2013 की बात है। इलाहाबाद में चल रही अपनी पढ़ाई के दौरान साथ पढ़ने वाली सहपाठी छात्रा को अचानक माइग्रेन अटैक आता है। अंजान शहर में छात्रा के पिता द्वारा रक्त के लिए लगभग सारे प्रयास करने के बाद थक हारकर बिटिया के क्लासरूम में प्रवेश किया जाता है। असहाय और हाथ जोड़कर घुटने के बल खड़े होकर रक्तदान के लिये आग्रह किया जाता है, लेकिन लगभग सभी एक दूसरे की ओर देखकर मुंह मोड़ लेते हैं। सभी की निराशा में एक आशा गगन के हाथों से मिलती है, और वह 21 वर्ष का युवा स्वेच्छा से रक्त देने के लिये तैयार हो जाता है। गगन बताते हैं कि पहली बार रक्तदान करने में उन्हें थोड़ा डर जरूर लगा लेकिन रक्तदान के बाद जो खुशी हुई, वो बहुत सारी प्रेरणा देकर गयी। इन सबके बाद बिटिया के पिता के मुंह से बस यही निकलता है कि तुम तो मेरी बेटी के हाकिम (खुदा) हो। उस समय गगन ने प्रथम बार रक्तदान किया था। बस यहीं से कहानी शुरू होती है जो अनवरत जारी है। कभी किसी के इकलौते बच्चे को रक्तदान करने का मौका मिला तो कभी बूढ़े मां बाप के जिस्म में रक्त प्रवाह करने का अवसर, कभी रक्त के लिये ना नहीं की। सुखद परिणाम ये निकला कि रक्तदान में उनका 14 जून को शतक पूरा हो गया है। वह अब तक मात्र 29 साल की छोटी सी उम्र में 100 बार रक्तदान( 31 बार पूर्ण रक्त, 65 बार प्लेटलेट्स व 4 बार प्लाज्मा) कर चुके हैं एवं क्षेत्र के युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत बन कर युवाओं के द्वारा 500 से अधिक बार रक्त दान भी करवा चुके है। रक्तदान सबसे बड़ा दान होता है, यह दान धर्म, जाति मजहब से परे सिर्फ इंसानियत को देखता है। रक्त की अहमियत वही व्यक्ति जान सकता है, जिसका कोई अपना परिवार का सदस्य रक्त के बिना जिंदगी और मौत के बीच पाता है । हमारे देश में लाखों लोग रक्त की कमी की वजह से असमय ही काल के गाल में समा जाते हैं। आज हमारा देश इतना आधुनिक होने के बाद भी लोगों को रक्तदान के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक नहीं कर पाया है। वर्तमान में भी में रक्तदान के प्रति लोगों में कई भ्रांतियां फैली हुई है, लोग रक्तदान करने से डरते हैं तथा कतराते हैं। जबकि सभी को पता है कि स्वस्थ मनुष्य के शरीर में हमेशा 5 से 6 लीटर तक रक्त होता है एवं रक्त नियमित रूप से शरीर में बनता रहता है ।
आपके नजदीक भी ऐसे महान धनी लोग मिल जाएंगे जो जीवन में अनेकों बार रक्तदान कर चुके हैं और अकाल मृत्यु से कई लोगों की जान बचा चुके हैं। ऐसे ही एक युवा निशांत साहू हैं, जिन्हें प्यार से लोग गगन भैया के नाम से पुकारते हैं, जो कि देश भर के युवाओं के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत की तरह है।
गगन भैया को समाजसेवा अपने परिवार से विरासत में मिली हुई है, इनके पिता हरी राम साहू नगर के प्रतिष्ठित संगीतकार चित्रकार एवं बहु मुखी प्रतिभा के धनी हैं। यह पूर्व में राष्ट्रीय युवा योजना से लेकर अनेक सामाजिक संगठनों से जुड़कर राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक कार्य कर चुके हैं । वह वर्तमान में सिविल सर्विसेज की तैयारी एवं घर के व्यवसाय में हाथ बटाने के साथ ही सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं । वह देश के अनेक हिस्सों में जाकर रक्तदान कर चुके हैं। वहीं क्षेत्रीय स्तर पर इनकी विशेष युवाओं की रक्तदाता टीम है, जो कि जरूरतमंद लोगों को रक्त एवं रक्त दाता मुहैया कराती है। उनकी टीम के अनेकों सदस्य ऐसे हैं जो अनेकों बार रक्तदान कर चुके हैं तथा उनकी टीम प्रत्येक बार गणेश महोत्सव के अवसर पर एक विशाल रक्तदान शिविर जिला चिकित्सा अधिकारी के सहयोग से आयोजित कराती है, जिसमें सैकड़ों की संख्या में लोग रक्तदान करते हैं एवं लोगों को रक्तदान करने के लिए जागरूक करते हैं । उनके इस पुनीत कार्य के लिए उनको एवं उनकी टीम को झांसी के जिला अधिकारी, जिला चिकित्सा अधिकारी से लेकर अनेक राजनैतिक एवं गैर राजनीतिक समाजसेवी संगठन सम्मानित कर चुके हैं। जहां एक और लोगों में रक्तदान के प्रति अनेक भ्रांतियां एवं भय रहता है वही गगन भैया एवं उनकी टीम के सदस्य बस एक फोन का इंतजार करते हैं कि किस जरूरतमंद का कब फोन आये और हम उसे रक्तदाता उपलब्ध कराएं। सच में हर कोई चाहता है कि गगन भैया जैसे अनेकों लोग समाज मैं लोगों के लिए प्रेरणा एवं मददगार बनकर अपना जीवन सार्थक बनायें। दुनिया में हर कोई महान बन सकता है लेकिन उसके लिए गगन भैया जैसा नेकदिल एवं दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए क्योंकि वर्तमान में जिस प्रकार से युवा नशाखोरी एवं अन्य व्यस्नों में लिप्त है, वह कहीं ना कहीं देश के सुरक्षित भविष्य के लिये एक प्रश्नचिन्ह बना हुआ है। वही दूसरी ओर असली देश सेवा एवं समाज सेवा गगन जैसे लोग करते हैं एवं अपने जीवन को सार्थक बना लेते हैं। निशांत साहू (गगन भैया) अनेक मंचो से अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं, लेकिन आज भी राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा पुरस्कार ना मिलने पर स्थानीय लोग आश्चर्य में है ।
जब कोरोनावायरस महामारी काल में काम करने वाले लोगों को पुरस्कृत किया जा रहा था तो गगन जैसे अनेक युवा प्रथम पंक्ति के काबिल थे लेकिन दुर्भाग्य से हमने उस युवा को वो सम्मान और प्रोत्साहन नहीं दिया जिसका वह हकदार था। गगन भैया के इस सराहनीय कार्य पर हम सभी उन्हें दिल से सलाम करते हैं। 

लॉकडाउन कोई विकल्प नहीं

एक वर्ष पूर्व जब कोरोना जैसी महामारी हमारे लिये बिल्कुल नयी थी, हमें उस स्ट्रेन का पता भी नहीं था कि ये इतना घातक भी हो सकता है, तब सिर्फ एक ही विकल्प था, वो था लॉकडाउन। उस लॉकडाउन ने पटरियों पर दौड़ती देश की उस गाड़ी को रोक दिया था, जो कभी इमरजेंसी में भी नहीं रुकी। लोगों के रोजगार छिन गए थे। प्रवासी मजदूर मजबूरों की तरह सड़क नाप रहे थे, व्यापार रुक गया था। हम जेलों की तरह घरों में कैद हो गए थे, स्थिति बद से बदतर और परिस्थिति भयावह हो गयी थी। आज हम फिर पिछले साल की स्थिति में आ गए हैं, अब सवाल उठ रहा है कि क्या फिर से लॉक डाउन लगना चाहिए?

मनुष्य का जीवन बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इस जीवन को चलाने के लिये जीविका उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। जीविका के लिये ही मजदूर पलायन करता है, घर बार छोड़कर विदेश तक चला जाता है। आर्थिक मंदी में जब उसका रोजगार ही छिन जाए तो वो भला कैसे जी पायेगा। आज हमें कोरोना क्या मर्ज है ये तो समझ में आ गया है, वो कितना घातक है, ये भी हमने समझ लिया है। हमने उसकी दवाई भी ढूंढ ली है। लेकिन हमारी लापरवाहियों और बीमारी को गंभीरता से ना लेने वाली सोच ने आज हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। आज हम बीमार होकर लाचार हो गए हैं।

पिछले महीने तक हमने कोरोना को काफी हद तक नियंत्रण में कर भी लिया था, लेकिन आज हम वहीं पहुंच गए हैं, जहाँ पिछली साल थे। कोविड प्रोटोकॉल के तहत जहाँ हमें मास्क और दो गज की दूरी की अनिवार्यता समझायी गयी थी, हमने उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया। सरकार ने भी कड़ाई में ढिलाई दी। जिसका नतीजा हुआ कि त्योहारों पर आवाजाही बढ़ गयी। दिल्ली और महाराष्ट्र में कोरोना बढ़ने पर लोगों ने फिर से अपने गांव आना चालू कर दिया, कुछ घर आये तो साथ में बीमारी भी लेकर आये। सत्तारूढ़ पार्टी भी चुनाव प्रचार में व्यस्त हो गयी, खचाखच भीढ़ को उपलब्धि के तौर पर दिखाए जाने लगा, मेट्रो, रिक्शा तथा सिनेमाघर खोल दिये गए। लोगों के मन से जनचेतना मानो गायब ही हो गयी। वैक्सीन के विषय में गलत प्रचार प्रसार किया गया, लोगों ने लगवाने से भी किनारा कर लिया। नतीजा ये निकला कोविड स्ट्रेन 2 और भी घातक बनकर आ गया।

आज की स्थिति में जहां देश भर में 12 लाख केश एक्टिव हैं वहीं उत्तर प्रदेश में 81576 केश एक्टिव हैं। अब आलम ये है कि यूपी में रोज 12-13 हजार नए केश सामने आ रहे हैं। लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी तथा कानपुर में स्थिति भयावह हो गयी है। कुल मामलों के लगभग आधे मामले इन्हीं चार महानगरों से आ रहे हैं। वहीं सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि वो लॉक डाउन के विषय में बिल्कुल नहीं सोच रहे हैं। यूपी में कुल 8000 वैक्सिनेशन केंद्रो के माध्यम से 90 लाख लोगों को वैक्सीन की डोज दी जा चुकी है। जहाँ 500 से अधिक मामले क्रियाशील हैं वहां रात्रि 9 बजे से सुबह 6 बजे तक रात्रि कर्फ्यू लगाया जा चुका है। लोगों में जागरूकता तथा कुशल नियंत्रण के लिये प्रत्येक जिले में कोविड से संबंधित कमांड एवं कंट्रोल सेंटर सुचारू हैं। आरटी-पीसीआर टेस्टिंग का 70 फीसदी तक लक्ष्य निर्धारित किया है। प्रत्येक सरकारी कार्यालय में कोविड हेल्पडेस्क स्थापित की गयी है। ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम निगरानी समिति क्रियाशील है। सेनेटाइजेशन एवं 40 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के शत प्रतिशत टेस्टिंग पर सरकार ध्यान दे रही है।

अब नवरात्र और रमजान पर्व आ रहा है, अतः प्रोटोकॉल के तहत निर्धारित धर्मस्थलो पर एक बार में 5 से अधिक लोग जाने से परहेज करें। सावधानी ही बचाव है, अतः मास्क और दो गज दूरी की अनिवार्यता का पालन करें।

जीवन के साथ जीविका भी जरूरी है, क्योंकि जीविका का सीधा असर परिवार की अर्थव्यवस्था और देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, हम मंदी का दौर देख चुके हैं, जिसका सीधा असर सामान्य जनजीवन पर पड़ता है। सरकार को आमजन के कल्याण के लिए राहत पैकेज देना पड़ता है, जिससे महंगाई बढ़ती है, मध्यमवर्गीय परिवार पर बोझ बढ़ता है। पिछले साल भी गरीब कल्याण योजना के तहत राहत पैकेज दिया गया था। अतः मानवीय गरिमा, सुरक्षा और सम्मान के लिये लॉक नहीं अनलॉक रहने की जरूरत है। सामान्य जनजीवन सुचारू रूप से चले उसके लिए हमारे देश में लॉक डाउन की कहीं कोई आवश्यकता नहीं है।

गिलहरी जैसा अर्पण, निधि समर्पण

श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र में भव्य राम मंदिर का निर्माण एवं तीर्थक्षेत्र के समस्त प्रकल्पों का निर्माण निश्चित समयावधि में किये जाने हेतु संपूर्ण देश में घर-घर जाकर उनसे राम काज में सहयोगी बनने हेतु निधि समर्पण अभियान के रूप में आग्रह किया जा रहा है। कोई भी अभियान तभी सफल माना जाता है, जब उसमें जनसहभागिता हो, आम जन का समर्पण हो, निधि के रूप में भरपूर दान राशि एकत्र हो जाये। ऐसे ही प्रभु श्रीराममंदिर से जुड़े एक अभियान निधि समर्पण अभियान की विधिवत शुरुआत हो गयी है। आने वाले दिनों में विहिप और आरएसएस के स्वयंसेवक आपके घर दस्तक देंगे, आपके समर्पण के लिये आपसे आग्रह करेंगे। आप भी रामसेतु के निर्माण में गिलहरी की भूमिका को स्मरण कर खुद को इस अभियान में समर्पित कर पुण्यलाभ के भागीदार बन जाइयेगा। वैसे भी ये भगवान का घर बन रहा है। इसके लिए दान नहीं, समर्पण चाहिए होता है।

सामान्यतः देखा जाता है कि दान मांगा जाता है, दान मांगने वाले लोग दान की राशि तय करते हैं, लेकिन इस पूरे अभियान में मांगने की कहीं बात ही नहीं है। पिछले दिनों निधि समर्पण अभियान की शुरुआत देश के प्रथम नागरिक आदरणीय राष्ट्रपति महोदय के निधि समर्पण से हो भी गयी है।

मंदिर निर्माण में लगने वाले पत्थर और ईंट विशेष प्रकृति के हैं। इन पत्थरों के वजन और उसकी आयु की सीबीआरआई (Central Building Research Institute) की लेबोरेटरी में जांच करायी गयी है, जो देश में इस प्रकार के पत्थरों की उम्र को स्टडी करते हैं, तो उन्होंने पाया कि ये पत्थर अमूमन 1000 साल की आयु के माने जाते हैं। प्राचीन मंदिर जो इन पत्थरों के बने हैं, वो आज भी अपनी ऐतिहासिकता से हमको अवगत करा रहे हैं। भारतीय इंजीनियरिंग विभाग ने ड्राइंग और प्रोपोजल्स भी भेज दिए हैं। ऐसी ड्रॉइंग्स और ऐसे प्रपोजल्स दिए हैं, जो निश्चित ही शताब्दियों के लिए होंगे और भारतीय इंजीनियरिंग ब्रेन के लिए दुनिया में उदाहरण बनेंगे।

जैसा कि हम जानते हैं कि ये भगवान का घर है और लक्ष्मी भगवान के चरणों में बैठती है। अतः निधि की पूर्ति पर सबको विश्वास है। अब इस बात को सोचना कि इसमें कोई कमी पड़ेगी, ये अपने ऊपर ही अविश्वास करने जैसा होगा। परमात्मा के काम में मनुष्य की बाधा नहीं पड़ सकती है। बुद्धि का देना और बुद्धि का छीन लेना, सब उसी के हाथ में है। धन का देना, धन कम देना और अधिक देना ये भी उन्हीं के हाथ में है, अतः जो कुछ है सब उन्हीं का है। श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चंपत राय ने बताया कि हम धन संग्रह नहीं कर रहे हैं, हम तो निधि समर्पण अभियान चला रहे हैं। क्योंकि सारा समाज अयोध्या नहीं आ सकता है। सारा समाज बैंक में लाइन नहीं लगा सकता है। अगर ऐसा कर दिया तो सिस्टम ही फेल हो जाएगा। जिस प्रकार देश का प्रत्येक बालक स्कूल नहीं जा सकता, तो विवेकानंद जी ने कहा कि स्कूल बच्चे के घर जाए। हमने भी सोचा है कि गरीब-मजदूर तक कैसे पहुंचा जाए। महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपाल महोदय बैंक के काउंटर तक कैसे जाएं। इसलिए हम ही इस अभियान के तहत घर-घर तक जाएंगे और उनके समर्पण के लिये उनसे आग्रह करेंगे। यह अभियान माघ पूर्णिमा के दिन यानी कि 27 फरवरी तक चलेगा। 27 फरवरी तक चलने वाले इस अभियान में देश के 13 करोड़ परिवारों से संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के 40 लाख कार्यकर्ता जनसंपर्क कर राममंदिर निर्माण के लिए स्वेच्छा से समर्पण मांगेंगे। देश के लाखों कार्यकर्ता आधी आबादी से तक जायेंगे। ये देश के साथ ही विश्व का भी सबसे बड़ा अभियान होगा। समर्पण अभियान का नेतृत्व श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चंपत राय और कोषाध्यक्ष गोविंद देव गिरी करेंगे।

ट्रस्ट के सदस्य डॉ. अनिल मिश्रा की मानें तो राम मंदिर निर्माण के सभी रामभक्त आसानी से अपना सहयोग कर सके इसके लिये विशेष व्यवस्था बनाई गई है। उन्होंने कहा राम मंदिर निर्माण में सहयोग के लिये 10 रुपए, 100 रुपए व 1000 रुपए के कूपन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके ऊपर की राशि पर रसीद दी जायेगी। रसीद और कूपन देने के साथ ही समर्पणकर्ता का नाम, पता और मोबाइल नंबर जुटाया जायेगा। इसके अलावा करीब 20 हजार से अधिक की राशि अकाउंट पेई चेक और बैंक ट्रांसफर से लिये जायेंगे। ये दान की गई सम्पूर्ण राशि टैक्स फ्री रहेगी। जारी किये गये कूपन और रसीद पर ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष गोविंद देव गिरी के हस्ताक्षर होंगे। इसमें प्रभु राम की एक हाथ में धनुष लिए और दूसरे हाथ से आशीर्वाद देती बड़ी तस्वीर होगी। इसके साथ ही मंदिर का मॉडल और ट्रस्ट का लोगो भी छपा होगा।बिना रसीद और कूपन के कोई राशि नहीं ली जायेगी।

जनसामान्य को अंशदान के लिए प्रेरित करने के लिये बड़ी बड़ी शख्शियतों ने अपना बड़ा दिल दिखाकर समर्पण स्वरूप राशि श्रीरामजन्मभूमि न्यास ट्रस्ट को दी है, जिसमें प्रमुख रूप से सरसंघचालक मोहन भागवत, पूर्व केंद्रीय मंत्री उमा भारती, मध्‍य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान, उत्‍तराखंड के सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत, मणिपुर के सीएम बीरेन सिंह और बिहार के पूर्व डिप्‍टी सीएम सुशील कुमार मोदी शामिल हैं।

व्हाट्सअप अब सुरक्षित नहीं है?

व्हाट्सअप अपडेट वर्जन के साथ अपने उपयोगकर्ताओं को दिए जाने वाली सेवाओं में नियम व शर्तों के साथ बदलाव करने जा रहा है, जिसके लिए आपसे अनुमति मांगी जा रही है। लेकिन हम भागदौड़ भरी जिंदगी में बिना पढ़े ही सारी नियम व शर्तें स्वीकार कर लेते हैं। अगर व्हाट्सएप के मामले में हमने यही गलती की तो हो सकता है, कल हम उपयोगकर्ता से सीधा उपयोगी वस्तु बन जायें। इसकी नई पॉलिसी के तहत शर्तें ही कुछ ऐसी हैं जो हमें अब रॉन्ग सिग्नल दे रही हैं, वहीं टेलीग्राम और सिग्नल को खुद व खुद ग्रीन सिग्नल मिलता दिखाई दे रहा है।

व्हाट्सएप में दो तरह के एकाउंट होते हैं, पहला साधारण और दूसरा बिज़नेस एकाउंट। व्हाट्सएप चैट वैसे तो एन्ड टू एंड एन्क्रिप्टेड होती है, जिसका मतलब होता है दो लोगों के बीच की बातचीत सिर्फ दो लोगों के बीच ही रहेगी, जिसे स्वयं व्हाट्सएप भी नहीं पढ़ सकता है। लेकिन जब यही चैट किसी बिज़नेस व्हाट्सएप एकाउंट के साथ हो रही हो तो हमारे बीच की बातचीत को कोई भी थर्ड पार्टी पढ़ सकता है, और उसका अपने मनमाफिक इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन हम इसके इस्तेमाल में इतना ध्यान ही नहीं रखते हैं कि कौन बिज़नेस एकाउंट उपयोग कर रहा है और कौन साधारण।

अगर बात एन्ड टू एंड एन्क्रिप्शन की की जाए तो इसमें भी बहुत बड़ा झोल है। आपकी चैट तो सुरक्षित है लेकिन व्हाट्सएप की नई पॉलिसी के तहत सेवा प्रदाता को ये पता चल जाएगा कि आप कौन सा हार्डवेयर उपयोग कर रहे हैं, इसमें कौन सा ऑपरेटिंग सिस्टम है, बैटरी लाइफ कितनी है, सिग्नल स्ट्रेंग्थ कैसा है, टाइम जोन कौन सा है, आईपी एड्रेस क्या है। इसके साथ आपकी प्रोफ़ाइल तस्वीर, स्टेटस, आपका नाम, आपकी कॉन्टेक्ट डिटेल्स अब कुछ भी सुरक्षित नहीं है।

व्हाट्सएप फेसबुक का ही एक उपक्रम है, जिसे फेसबुक ने सन 2014 में 22 बिलियन डॉलर में खरीद लिया था। अतः अब आपकी सूचना अब अन्य प्लेटफार्म जैसे फेसबुक, फ़ेसबुक मैसेंजर और इंस्टाग्राम पर भी पहुंच जाएगी। जहां फेसबुक मैसेंजर एन्ड टू एंड एन्क्रिप्ट नहीं है, अतः आपकी निजता भंग होने की शत प्रतिशत सम्भावना है। जहाँ आपका एक लाइक ही ये बतला देता है कि आप क्या देखना चाहते हैं, फिर आपको वही दिखाया जाता है, उसी तरह के विज्ञापन दिखाए जाते हैं, जिनको कोई ना कोई स्पांसर कर रहा होता है। आपकी सूचनाओं का एक वस्तु की तरह उपयोग किया जाता है। दरअसल ये एक बिज़नेस मॉड्यूल है, विज्ञापन बेचने का एक तरीका है।

व्हाट्सएप द्वारा ये डेटा कलेक्शन आगामी समय में काफी चीजें प्रभावित कर सकता है, जैसे कि आम चुनाव का प्रचार और रुझान का अपने पक्ष में करना। कैम्ब्रिज एनलिटिका द्वारा ये किया भी जा चुका है। इसके साथ आपकी कई गोपनीय जानकारियां जैसे कि बैंक डिटेल्स, ईमेल नोटिफिकेशन आदि यदि लीक हो गयी तो आपको काफी गहरा आघात पहुंचा सकती हैं।

व्हाट्सएप चूंकि हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हो चुका है, इसलिए हम इसे यूँ ही छोड़ भी नहीं सकते हैं, लेकिन उसके उपयोग को लेकर सावधानी बरतने की जरूरत है। जैसे किसी भी बिज़नेस व्हाट्सएप एकाउंट के साथ अपनी निजी जानकारी साझा नहीं कीजिए। आईपी एड्रेस छिपाने के लिये वीपीएन का इस्तेमाल कीजिए। खुद की प्रोफाइल पिक्चर लगाने से बचिये, यदि लगानी ही है तो सेटिंग में जाकर ऐसी सेटिंग कर लीजिए कि सिर्फ जानपहचान वाले लोगों को देखने की अनुमति मिले। आजकल के डिजिटल युग में आपकी निजी जानकारियां बहुत महत्वपूर्ण हैं, अतः अपनी निजता का पूरा ख्याल रखिए।

गुना का गुनाह!

भारत में एक अन्नदाता ही है जो एक अरब तैंतीस करोड़ लोगों की जठराग्नि को शांत करता है, लेकिन जब इसी किसान की मेहनत पर प्रशासनिक बुल्डोजर चलने लगे तो खुदा भी खुद सोचने को मजबूर हो जाता है। उस समय उस मजबूर की आत्मा कितनी कचोटती होगी, इसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते है। इसमें कोई दोराय नहीं कि किसान अपनी सारी पूँजी खुले आसमान के नीचे बिखेर देता है, कई महीनों की दिन-रात की मेहनत होने पर भी उसे प्रकृति की रुसवाई का सामना करना पड़ता है, इसके साथ जब यही पूँजी यदि कर्ज से ली गयी हो और सामने प्रशासनिक लुटेरे नजर आए तो लगता है कि खुदकुशी के अलाबा कोई विकल्प नहीं है। गुना में एक मजबूर कृषक द्वारा यही गुनाह किया गया है। सुना है पीजी मॉडल कॉलेज की 20 बीघा जमीन किसी गब्बू भू माफिया ने कब्जाई और एक गरीब के कर्ज के उसमें 3 लाख लगवाकर बटाई पर दे दी। जब तक बौनी नहीं हुई तो किसी ने नाप की भी सुध नहीं ली, लेकिन जब फसल उगने लगी और किसान को अच्छी फसल की उम्मीद दिखी तभी गुंडे के रूप में नगर पालिका का प्रशासनिक अमला का हमला हो जाता है, उस भू माफिया से तो कोई कुछ नहीं कह पाता है, लेकिन एक मजबूर के साथ ज्यादती दिखाई जाती है। बटाईदार के भाई की ऐसी पिटाई की जाती है, मानो उसने दरोगा जी के बैल हंका लिए हो।

कहने को ये क्षेत्र महाराजा साहब की रियासत का है, लेकिन यहाँ कानून के रखवाले अंग्रेजों के जैसे काले कानून को मानने वाले ही हैं। भूलेख कानून बताते हैं कि फसल बुआई के बाद जमीन की पैमाइश नहीं की जाती है, क्योंकि ये फसल का अपमान होता है। किसी हरिजन का यदि जमीन पर 5 वर्ष से अधिक से कब्जा है तो उसे बिना निर्धारित प्रक्रिया के जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता है। बटाईदार को फसल क्षति होने पर मुआवजा का लाभ भी दिया जाता है ताकि वह अगली फसल लेने के लिये उचित प्रबंध कर सके। लेकिन नीति निर्माताओं की सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं, और उस किसान की मेहनत पर प्रशासनिक बुल्डोजर चल जाता है।

देश की आजादी के समय से ही हमारे यहां कई भूमि सुधार कार्यक्रम किये गये। जमींदार और आसामी के बीच की खाई को भरने के लिये कई सीलिंग कानून लाये गये, लेकिन हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कई सीलिंग कानून होने के बावजूद कोई 200 बीघा का मालिक बन जाता है, तो किसी के पास 2 बीघा भी जमीन नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत मे आज भी लगभग 56 फीसदी ग्रामीण आबादी भूमिहीन है, जो या तो मजदूरी करके भरण कर पोषण कर रही है या किसी की बटाई पर खेती करने को विवश हैं। अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब अन्नदाता ही अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो जाएगा। गुना का गुनाह तो बानगी भर है, अगर यही हाल रहा तो कर्ज के बोझतले ना जाने कितने बेगुनाह किसान अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेंगे।

कोरोनिल कोई कोरोना की दवा नहीं!

कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने का जो काम अब तक पूरी दुनिया नहीं कर सकी है, उसे बना लेने का दावा बाबा रामदेव और उनकी संस्था पतंजलि आयुर्वेद ने किया है। बाबा रामदेव ने पिछले दिनों मीडिया के सामने दावा किया कि पतंजलि ने कोरोना वायरस को हराने वाली दवा बना ली है, जो एक हफ्ते के अंदर मरीजों को सौ फीसदी ठीक कर देगी। लेकिन देश के लोगों के लिए यह खबर सुकून देने के बजाय अचंभित करने वाली ज्यादा हो गयी है। जहां बाबा ने बताया कि उन्होंने इस दवा को बनाने के लिए पूरी निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया है वहीं उत्तराखंड के आयुष विभाग के लाइसेंस ऑफिसर के अनुसार पतंजलि को सिर्फ इम्युनिटी बूस्टर, खांसी और बुखार की दवा बनाने का ही लाइसेंस जारी किया गया था। लाइसेंस ऑफिसर ने स्पष्ट कहा कि अनुमति लेते समय पतंजलि ने कोरोना वायरस का जिक्र ही नहीं किया था।

सामान्य परिस्थितियों में किसी दवा को विकसित करने और उसका क्लिनिकल ट्रायल पूरा होने में कम से कम तीन साल तक का समय लगता है लेकिन अगर स्थिति अपातकालीन हो तो भी किसी दवा को बाज़ार में आने में कम से कम दस महीने से सालभर तक का समय लग जाता है।

भारत में किसी दवा या ड्रग को बाज़ार में उतारने से पहले किसी व्यक्ति, संस्था या स्पॉन्सर को कई चरणों से होकर गुज़रना होता है। इसे आम भाषा में ड्रग अप्रूवल प्रोसेस कहते हैं। अप्रूवल प्रोसेस के तहत, क्लिनिकल ट्रायल के लिए आवेदन करना, क्लिनिकल ट्रायल कराना, मार्केटिंग ऑथराइज़ेशन के लिए आवेदन करना और पोस्ट मार्केटिंग स्ट्रेटजी जैसे कई चरण आते हैं। भारत में किसी दवा के अप्रूवल के लिए सबसे पहले इंवेस्टिगेशनल न्यू ड्रग एप्लिकेश यानी आईएनडी को सीडीएससीओ के मुख्यालय में जमा करना होता है। इसके बाद न्यू ड्रग डिवीज़न इसका परीक्षण करता है। इस परीक्षण के बाद आईएनडी कमिटी इसका गहन अध्ययन और समीक्षा करती है। इस समीक्षा के बाद इस नई दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया के पास भेजा जाता है। अगर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया, आईएनडी के इस आवेदन को सहमति दे देते हैं तो इसके बाद कहीं जाकर क्लिनिकल ट्रायल की बारी आती है।क्लिनिकल ट्रायल के चरण पूरे होने के बाद सीडीएससीओ के पास दोबारा एक आवेदन करना होता है। यह आवेदन न्यू ड्रग रजिस्ट्रेशन के लिए होता है। एक बार फिर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया इसे रीव्यू करता है। अगर यह नई दवा सभी मानकों पर खरी उतरती है तो कहीं जाकर इसके लिए लाइसेंस जारी किया जाता है, लेकिन अगर यह सभी मानकों पर खरी नहीं उतरती है तो डीसीजीआई इसे रद्द कर देता है। इसके साथ ही देश के हर राज्य में स्टेट ड्रग कंट्रोलर होते हैं। जो अपने राज्य में दवा के मैन्युफैक्चर के लिए लाइसेंस जारी करते हैं। जिस राज्य में दवा का निर्माण होना है, वहां स्टेट ड्रग कंट्रोलर से अप्रूवल लेना होता है।

भारत में किसी नई दवा के लिए अगर लाइसेंस हासिल करना है तो कई मानकों का ध्यान रखना होता है। यह सभी मानक औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 और नियम1945 के तहत आते हैं। इसके लिए ये भी समझना ज़रूरी है कि नई दवा दो तरह की हो सकती है। एक तो वो जिसके बारे में पहले कभी पता ही नहीं था। इसे एनसीई कहते हैं, ये एक ऐसी दवा होती है जिसमें कोई नया केमिकल कंपाउंड हो। दूसरी नई दवा उसे कहा जाता है जिसमें कंपाउंड तो पहले से ज्ञात हों लेकिन उनका फ़ॉर्मूलेशन अलग हो। मसलन जो दवा अभी तक टैबलेट के तौर पर दी जाती रही उसे अब स्प्रे के रूप में दिया जाने लगा हो।

अंग्रेज़ी दवा और आयुर्वेंद के लिए अप्रूवल मिलने में अंतर बहुत अधिक नहीं है, लेकिन आयुर्वेद में अगर किसी प्रतिष्ठित किताब के अनुरूप कोई दवा तैयार की गई है तो उसे आयुष मंत्रालय तुरंत अप्रूवल दे देगा। जबकि एलोपैथ में ऐसा नहीं है। यह भी एक वजह है पतंजलि द्वारा कोरोना रोकथाम के नाम पर इम्यूनिटी बूस्टर वाली दवा इतनी जल्दी तैयार कर ली गयी है। आयुर्वेद प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति है, जिसमें किसी जड़ी-बूटी को किस मात्रा में, किस रूप में और किस इस्तेमाल के लिए अपनाया जा रहा है सबका लिखित ज़िक्र है। ऐसे में अगर कोई ठीक उसी रूप में अनुपालन करते हुए कोई औषधि तैयार कर रहा है तब तो ठीक है, लेकिन अगर कोई काढ़े की जगह टैबलेट बना रहा है और मात्राओं के साथ हेर-फेर कर रहा है, तो उसे सबसे पहले इसके लिए रेफ़रेंस देना होता है। आयुर्वेद भी अधिनियम 1940 और नियम 1945 के ही मानकों पर ही काम करता है, लेकिन कुछ मामलों में ये एलोपैथ से अलग है। मसलन अगर आप किसी प्राचीन और मान्य आयुर्वेद संहिता को आधार बनाकर कोई दवा तैयार कर रहे हैं तो आपको क्लिनिकल ट्रायल में जाने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन अगर आप उसमें कुछ बदलाव कर रहे हैं या उसकी अवस्था को बदल रहे हैं और बाज़ार में उतारना चाहते हैं तो कुछ शर्तों को पूरा करने के बाद ही आप उसे बाज़ार में ला सकेंगे। ऐसा नहीं है कि किसी ने कुछ भी बनाया और मुनाफे के लिए बाज़ार में बेचने लगा।