पुरानी पेंशन: सुरक्षित भविष्य, सामाजिक सुरक्षा।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व में पेंशन के संदर्भ में की गयी ये टिप्पणी कि पेंशन किसी कर्मचारी को दी गयी भीख या सरकारी कृपा नहीं है, ये तो कर्मचारी का वो लंबित वेतन है जो उसे सेवानिवृति पश्चात सुरक्षित भविष्य और सामाजिक सुरक्षा के लिये प्रदान किया जाना आवश्यक है, इस पर मौजूदा सरकार को ठोस कदम उठाना चाहिए, आज प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गयी है। करीब 28 लाख कर्मचारी, शिक्षक और पेंशनर्स लगभग डेढ़ दशक से भी अधिक समय से पुरानी पेंशन बहाली हेतु अपनी विभिन्न तरीकों से मांग रखते आ रहे हैं। ये वो लोग हैं जो समाज में अपनी राय कायम रखते हैं, चुनाव में इनका रुझान जीत और हार का फैसला तय करता है। इनमें गुरुजन भी आते हैं तो कई लोग इन्हें प्रबुद्ध जन की भी संज्ञा देते हैं। निश्चित तौर पर इनसे जुड़ा कोई मुद्दा है तो प्रतिनिधि चुनने में इनकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। भले ही मौजूदा सरकार नई पेंशन योजना को कर्मचारियों के लिये हितकर बता रही हो, लेकिन वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। जहाँ नई पेंशन योजना में ना तो सुरक्षित भविष्य की गारंटी है, ना ही सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन है। नई पेंशन के पश्चात जीपीएफ फंड को खत्म कर दिया गया है, जिसमें 12 प्रतिशत धनराशि नियोक्ता के द्वारा जमा की जाती थी। आज नई पेंशन में नियोक्ता एवं कर्मचारी के अंशदान को शेयर बाजार के हवाले कर दिया गया है। जिसमें कोरोना काल में हमने सेंसेक्स की तरह धड़ाम से गिरते हुए मेहनत के पैसे को घटते हुए देखा है। हम कह सकते हैं जहाँ ओपीएस डेफिनिट बेनिफिट स्कीम थी, तो एनपीएस डेफिनिट कॉन्ट्रिब्यूशन स्कीम है, जिसमें यदि पेंशन चाहिए है तो सेवानिवृति तक अपना अंशदान जमा करते ही रहना होगा, जो भी कॉर्पस तैयार होगा, उससे बीमा कम्पनी से एक एन्युटी खरीदनी होगी। जिससे प्राप्त ब्याज की धनराशि हमें पेंशन समझकर रख लेनी होगी। मतलब सरकार का नौकरी के बाद हमसे कोई सरोकार नहीं रहेगा, हमें खुद के भरोसे छोड़ दिया जाएगा। शेयर बाजार में सरकार हमारे पैसे को बिना हमारी सहमति के, बिना हमारी पसंद के यूटीआई, एसबीआई और एलआईसी के यूलिप प्लान में निवेश कर रही है। मतलब बहुतकुछ थोपा जा रहा है और सरकार एक गैर जिम्मेदार नियोक्ता की तरह अपने फरमानों का निर्वहन करा रही है। एक आरटीआई से मिली जानकारी से पता चला है कि सरकार इस पैसे का प्रबन्धन एवं निवेश भी समय से नहीं कर पाई है।

पुरानी पेंशन योजना को समाप्त करते वक्त ये तर्क दिया गया कि बहुत अधिक वित्तीय भार सहन करने में सरकारें समर्थ नहीं है। तकरीबन कुल बजट का 50 प्रतिशत हिस्सा कर्मचारियों, अधिकारियों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन में ही खर्च हो जाता है। वहीं करोड़ों रुपये की मूर्ति बनाने, सैकड़ों करोड़ रुपये विज्ञापन में खर्च करने से कोई वित्तीय भार नीति निर्माताओं को नजर ही नहीं आता है। एक ओर वोट खरीदने के लिये विभिन्न वर्गों को बिन मांगे ही पेंशन दी जा रही है साथ ही पेंशन राशि भी बढ़ाई जा रही है। सांसद, विधायकगण जहाँ दो-दो , तीन-तीन पेंशन का लाभ ले रहें हैं, साथ ही साथ वकालत, ठेकेदारी एवं अन्य व्यवसाय जैसे अन्य आय के स्त्रोत भी उनके पास मौजूद होते हैं। वहीं दूसरी ओर 35 से 40 वर्ष सेवा देने के बावजूद कर्मचारियों के बुढ़ापे की लाठी रूपी पेंशन को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। जिससे उसका वर्तमान अधर में और भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। ये सिर्फ शिक्षक, कर्मचारी और पेंशनर्स का मुद्दा नहीं है, ये उन प्रतियोगी छात्रों को भी प्रभावित करता है जो एक अदद सरकारी नौकरी की आस लगाये बैठे हैं और भविष्य में सरकारी लोकसेवक बनने जा रहे हैं।

पुरानी पेंशन बहाली के आंदोलन की सफलता अब कुछ दिखायी भी देने लगी है, क्योंकि सपा मुखिया अखिलेश यादव ने इसे अपने चुनावी मुद्दे में शामिल किया है, वहीं अन्य दलों का भी इसमें मूक समर्थन है। अन्य मुद्दे की भांति पुरानी पेंशन प्रमुख राजनीतिक चर्चा का विषय बन गयी है, क्योंकि ये शिक्षक और अन्य राज्य कर्मचारी जैसे लेखपाल, सींचपाल ग्राम-सचिव समेत चुनावी कर्मियों से जुड़ा मुद्दा है, जो ग्राम स्तर पर सीधे आम मतदाता से जुड़ा होता है एवं चुनाव में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए की केंद्र सरकार ने जब पेंशन निधि विनियामक अधिनियम 2003 को कानूनी जामा पहनाकर इसे लागू किया तो इसमें राज्यों के लिये अनिवार्यता की शर्त नहीं रखी गयी थी, लेकिन लगभग समस्त राज्यों ने वित्तीय भार को देखते हुए तुरंत ही अंगीकार कर लिया था। अपवादस्वरूप पश्चिम बंगाल एवं त्रिपुरा में आज भी पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू है। अखिलेश के पेंशन रूपी दांव से जहाँ योगी सरकार सकते में है, वहीं पेंशन की मांग की आस लगाए बैठे लाखों राज्य कर्मचारी आज भी उम्मीद के सहारे हैं। सत्तारूढ़ दल से उम्मीद इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि सत्ता के खातिर ही तमाम वादे एवं दावे किए जाते हैं। सरकार पुरानी पेंशन का यदि कर्मचारियों को तोहफा देती है तो वह अपने 14 प्रतिशत के अंशदान को भी विकास कार्यों में खर्च कर आवाम को लाभान्वित कर सकती है। कर्मचारियों के लिए सकारात्मक बिंदु ये है कि केंद्र और राज्य में समान दल की सरकार है तथा केंद्र में अभी अधिसूचना भी लागू नहीं है। केंद्र सरकार चाहे तो बजट सत्र में विधेयक लेकर शिक्षकों, कर्मचारियों एवं पेंशनर्स को खुशियों की सौगात देकर राजनैतिक लाभ हासिल कर सकती है।

Leave a comment