कोविड-19 के संक्रमण से जनसामान्य को बचाने हेतु सम्पूर्ण देश लॉक डाउन में है, लेकिन घर की राह देख रहा मजदूर सड़कों पर है। साधन मिलने की उम्मीद ना देख वह पैदल ही सैकड़ों मील की दूरी तय कर चुका है, अभी भी उसे कई मील चलना बाकी है। कोरोना से वह बच भी जाये तो सड़क उसे लीलने को लालायित बैठी है। औरैया, मुजफ्फरनगर, सागर एवं गुना समेत कई स्थानों पर हुए सड़क हादसों में लगभग 70 मजदूर अपनी जान गवां बैठे हैं। पलायन वापसी की ये तस्वीरें भयावह हैं, आत्मा को झकझोर कर देने वाली है। एक तस्वीर में पैसे के अभाव में बैल को बेचकर इंसान खुद बैलगाड़ी हांक रहा है। वहीं बुंदेलखंड के महोबा की एक महिला सूटकेस से बच्चे को लटकाये सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर दिखाई दे रही है। इन सभी में सबसे अधिक पिछड़े बिहार और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र से आने वाले मजदूर हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि स्कैनिंग और टेस्टिंग की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है, श्रमिक विशेष ट्रैन और रोडवेज बसों से भी मजदूरों को वापिस लाना नाकाफी साबित हो रहा है। लॉकडाउन में मजदूरों की पलायन वापसी की तसवीरें किसी से छिपी नहीं है, लेकिन बुंदेलखंड में लॉकडाउन से पूर्व की पलायन की भी तस्वीरों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। आप बुंदेलखंड के झांसी, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर तथा ललितपुर आदि किसी भी रेलवे स्टेशन पर रात नौ-दस बजे के बाद दो-तीन घंटे बिता लीजिए। ख़ास तौर पर जब दिल्ली जाने वाले ट्रेनें यहां से गुजरती हाें। आप देखेंगे कि किन अमानवीय हालात में यहां के लोग आते-जाते हैं। और ये आवाजाही या पलायन भी इतने बड़े पैमाने पर कि गांव के गांव खाली हो जाएं?
वैसे तो बुंदेलखंड का गौरवशाली अतीत रहा है। यह क्षेत्र कला और साहित्य में अग्रणी रहा है। पहले यहां के जंगल अत्यंत घने एवं जैव विविधता भरे थे। दिल्ली के हुक्मरानों को यहां के जंगलों के हाथियों की खेप भेजी जाती थी और अकाल पड़ने पर भी इस क्षेत्र को बाहर का मुंह नहीं देखना पड़ता था। ओरछा और खजुराहो के मंदिरों व महलों के स्थापत्य से साफ जाहिर होता है कि यहां इस विधा की भी अपने विशिष्ट शैली विद्यमान थी। क्षेत्र के तालाबों की चर्चा तो 10वीं 11वीं शताब्दी के ग्रंथ तक करते हैं। तो आखिर पिछले चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि यहां के निवासी लगातार पलायन को मजबूर हो गए?
जैसे बुंदेलखंड की ज़मीन पर पानी नहीं रुकता, वैसे ही यहां से अब पलायन नहीं थमता है। एक तरफ़ जहां खेतों से फ़सलें कटकर बाज़ार में पहुंचती हैं, खेत सूने हो जाते हैं, दूसरी तरफ़ अपनी जड़ों से कटकर बुंदेलखंड के लोग दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, जम्मू, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, लेह-लद्दाख़ तक पहुंच जाते हैं और गांव के गांव सूने होते जाते हैं। पहले सिर्फ 2 से 3 महीने का चैत के महीने में पलायन होता था और पलायन करने वाले चैत में फसल कटाई के लिए दूसरे गांवों में जाते थे। बुंदेलखंड में इन लोगों को चेतुआ कहा जाता था, अब तो ये लोग पूरे वर्ष के लिए ही जाते हैं। शादी ब्याह/त्योहार या गमी जैसे विशेष कारण पर ही ये लोग अब लौटते हैं।
बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में गढ़कुढार के ऐतिहासिक किले के करीब ढीमरपुरा पंचायत के लोगों की आजीविका के पुश्तैनी साधन मछली पकड़ना रहा है। विडंबना यह है कि यहां 127 हेक्टेयर में फैले विशाल सिंदूरसागर तालाब पर सूखे की गहरी मार पड़ी है। यह तालाब 100 से ज्यादा परिवारों की आजीविका का केंद्रीय साधन रहा है। यहां पलने वाली रोहू, कतला, बावस और झींगा मछलियां हावड़ा-कोलकाता के बाजारों में अपने खास स्वाद के लिए विख्यात रहीं हैं लेकिन 170 परिवारों वाले इस गांव के 48 घरों पर बारिश के मौसम में ताले लटक रहे हैं और 67 परिवारों के दो-दो या तीन-तीन सदस्य पलायन करके रोजगार की तलाश में दिल्ली, चंडीगढ़ या गुड़गांव चले गए हैं।
बुंदेली कहावत है, ‘बाढ़े पूत पिता के करमें, खेती बाढ़े आपने धरमे’ यानि पिता के सत्कर्मों से पुत्र और स्वयं के परिश्रम से कृषि बढ़ती है। मगर बुंदेलखंड में पिता ने कोई पाप नहीं किए और पुत्र ने खेती में परिश्रम से भी मुंह नहीं मोड़ा फिर भी इस विपत्ति के आने का क्या कारण है?
वैसे तो पलायन के कई कारण है, जिसमें विशेषकर उद्योगों का नितांत अभाव, जल संरक्षण के प्रबंधन में कमी, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन तथा बड़े शहरों में लगातार कार्य मिलना पलायन का प्रमुख कारण नजर आता है। बुंदेलखंड में पहले की जातीय पंचायते अपने आप में नजीर हुआ करती थीं, ये जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर दंड में प्रायः उससे तालाब बनाने को कहती थीं। बुंदेलखंड में औसत बारिश 80 सेंटीमीटर है, जिससे यहां पानी की कमी बनी रहती है। केंद्रीय भूजल बोर्ड बताता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र के जिलों के कुओं में पानी का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है और भूजल हर साल 2 से 4 मीटर के हिसाब से गिर रहा है, वहीं दूसरी ओर हर साल बारिश में गिरने वाले 70 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी में से मात्र 15 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर में उतर पा रहा है।
हमें यह भी विचार करना होगा कि भूमि सुधारों की असफलता से भी तो कहीं पलायन में वृद्धि नहीं हुई है। क्योंकि बुंदेलखंड क्षेत्र में यह बात स्पष्ट तौर पर नजर भी आती है। भूमि सुधार को लेकर विश्व श्रम संगठन की यह टिप्पणी इसके एक नए आयाम पर रोशनी डालती है। संगठन ने अपने एक अध्ययन में पाया कि ‘भूमि सुधार कार्यक्रमों से उन परिवारों से पलायन में कमी आ सकती है जहां इसके परिणामस्वरूप उनके भूखंड को आकार में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई हो, परंतु इसकी वजह उन समूहों से पलायन में वृद्धि हो सकती है जिनकी स्थिति इस सुधार से प्रभावित हुई हो। बड़े भूखंडों के टूटने से श्रमिकों की मांग कम होती है क्योंकि छोटे खेतों में उन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। हालांकि उनमें अधिक श्रम की आवश्यकता तो होती है लेकिन इन्हें अक्सर परिवार के द्वारा ही संचालित किया जाता है। जिन भूमिहीन श्रमिकों को इस प्रक्रिया में भूमि नहीं मिल पाती उन्हें अंततः पलायन हेतु मजबूर होना पड़ता है।’कहीं कहीं आज भी ये हालात हैं कि प्रमुख जलस्रोतों पर दबंगों का कब्जा है और वे अपने समूह के अलावा किसी को उसका उपभोग नहीं करने देते।
बुंदेलखंड के घाव अब गहरे होते जा रहे हैं। एक सुनहरे अतीत से निरंतर सुखाड़ वाले इलाके में बदलने वाले बुंदेलखंड की मौजूदा समस्याओं को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। चारों तरफ पहाड़ी श्रृंखलाएं, ताल-तलैये और बारहमासी नालों के साथ काली सिंध, बेतवा, धसान और केन नदियों वाले क्षेत्र का वर्तमान बहुत दुखदायी हो चुका है। यहां की जमीन खाद्यान्न, फलों, तंबाकू और पपीते की खेती के लिए बहुत उपयोगी मानी गई है। यहां सारई, सागौन, महुआ, चार, हर्र, बहेड़ा, आंवला, घटहर, आम, बेर, धुबैन, महलोन, पाकर, बबूल, करोंदा, समर के पेड़ खूब पाए जाते रहे हैं। यह इलाका प्रकृति के कितना करीब रहा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के नाम वृक्षों के नाम वृक्षों (जमुनिया, इम्लाई), जलाशयों, कुओं (सेमरताल), पशुओं, (बाघडबरी, हाथीसरा, मगरगुहा, झींगुरी, हिरनपुरी), पक्षियों, घास-पात या स्थान विशेष के पास होने वाली किसी खास ध्वनि के आधार पर रखे गए, पर अब इस अंचल को विकास की नीतियों ने यहां खेती को भी सुखा इलाका बना दिया है। पिछले 10 वर्षों में बुंदेलखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 55 फीसदी और उत्पादकता में 21 प्रतिशत की कमी आई है। बुंदेलखंड में मजदूरों और किसानों पर त्रासदी का ये आलम है कि यहां का मजबूर और पीड़ित कृषक खुद ही खुदकुशी करने को विवश है।