कितना मजबूर, बुंदेली मजदूर?

कोविड-19 के संक्रमण से जनसामान्य को बचाने हेतु सम्पूर्ण देश लॉक डाउन में है, लेकिन घर की राह देख रहा मजदूर सड़कों पर है। साधन मिलने की उम्मीद ना देख वह पैदल ही सैकड़ों मील की दूरी तय कर चुका है, अभी भी उसे कई मील चलना बाकी है। कोरोना से वह बच भी जाये तो सड़क उसे लीलने को लालायित बैठी है। औरैया, मुजफ्फरनगर, सागर एवं गुना समेत कई स्थानों पर हुए सड़क हादसों में लगभग 70 मजदूर अपनी जान गवां बैठे हैं। पलायन वापसी की ये तस्वीरें भयावह हैं, आत्मा को झकझोर कर देने वाली है। एक तस्वीर में पैसे के अभाव में बैल को बेचकर इंसान खुद बैलगाड़ी हांक रहा है। वहीं बुंदेलखंड के महोबा की एक महिला सूटकेस से बच्चे को लटकाये सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर दिखाई दे रही है। इन सभी में सबसे अधिक पिछड़े बिहार और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र से आने वाले मजदूर हैं। इनकी संख्या इतनी अधिक है कि स्कैनिंग और टेस्टिंग की व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है, श्रमिक विशेष ट्रैन और रोडवेज बसों से भी मजदूरों को वापिस लाना नाकाफी साबित हो रहा है। लॉकडाउन में मजदूरों की पलायन वापसी की तसवीरें किसी से छिपी नहीं है, लेकिन बुंदेलखंड में लॉकडाउन से पूर्व की पलायन की भी तस्वीरों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। आप बुंदेलखंड के झांसी, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर तथा ललितपुर आदि किसी भी रेलवे स्टेशन पर रात नौ-दस बजे के बाद दो-तीन घंटे बिता लीजिए। ख़ास तौर पर जब दिल्ली जाने वाले ट्रेनें यहां से गुजरती हाें। आप देखेंगे कि किन अमानवीय हालात में यहां के लोग आते-जाते हैं। और ये आवाजाही या पलायन भी इतने बड़े पैमाने पर कि गांव के गांव खाली हो जाएं?

वैसे तो बुंदेलखंड का गौरवशाली अतीत रहा है। यह क्षेत्र कला और साहित्य में अग्रणी रहा है। पहले यहां के जंगल अत्यंत घने एवं जैव विविधता भरे थे। दिल्ली के हुक्मरानों को यहां के जंगलों के हाथियों की खेप भेजी जाती थी और अकाल पड़ने पर भी इस क्षेत्र को बाहर का मुंह नहीं देखना पड़ता था। ओरछा और खजुराहो के मंदिरों व महलों के स्थापत्य से साफ जाहिर होता है कि यहां इस विधा की भी अपने विशिष्ट शैली विद्यमान थी। क्षेत्र के तालाबों की चर्चा तो 10वीं 11वीं शताब्दी के ग्रंथ तक करते हैं। तो आखिर पिछले चार दशकों में ऐसा क्या हो गया कि यहां के निवासी लगातार पलायन को मजबूर हो गए?

जैसे बुंदेलखंड की ज़मीन पर पानी नहीं रुकता, वैसे ही यहां से अब पलायन नहीं थमता है। एक तरफ़ जहां खेतों से फ़सलें कटकर बाज़ार में पहुंचती हैं, खेत सूने हो जाते हैं, दूसरी तरफ़ अपनी जड़ों से कटकर बुंदेलखंड के लोग दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, जम्मू, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, लेह-लद्दाख़ तक पहुंच जाते हैं और गांव के गांव सूने होते जाते हैं। पहले सिर्फ 2 से 3 महीने का चैत के महीने में पलायन होता था और पलायन करने वाले चैत में फसल कटाई के लिए दूसरे गांवों में जाते थे। बुंदेलखंड में इन लोगों को चेतुआ कहा जाता था, अब तो ये लोग पूरे वर्ष के लिए ही जाते हैं। शादी ब्याह/त्योहार या गमी जैसे विशेष कारण पर ही ये लोग अब लौटते हैं।

बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में गढ़कुढार के ऐतिहासिक किले के करीब ढीमरपुरा पंचायत के लोगों की आजीविका के पुश्तैनी साधन मछली पकड़ना रहा है। विडंबना यह है कि यहां 127 हेक्टेयर में फैले विशाल सिंदूरसागर तालाब पर सूखे की गहरी मार पड़ी है। यह तालाब 100 से ज्यादा परिवारों की आजीविका का केंद्रीय साधन रहा है। यहां पलने वाली रोहू, कतला, बावस और झींगा मछलियां हावड़ा-कोलकाता के बाजारों में अपने खास स्वाद के लिए विख्यात रहीं हैं लेकिन 170 परिवारों वाले इस गांव के 48 घरों पर बारिश के मौसम में ताले लटक रहे हैं और 67 परिवारों के दो-दो या तीन-तीन सदस्य पलायन करके रोजगार की तलाश में दिल्ली, चंडीगढ़ या गुड़गांव चले गए हैं।

बुंदेली कहावत है, ‘बाढ़े पूत पिता के करमें, खेती बाढ़े आपने धरमे’ यानि पिता के सत्कर्मों से पुत्र और स्वयं के परिश्रम से कृषि बढ़ती है। मगर बुंदेलखंड में पिता ने कोई पाप नहीं किए और पुत्र ने खेती में परिश्रम से भी मुंह नहीं मोड़ा फिर भी इस विपत्ति के आने का क्या कारण है?

वैसे तो पलायन के कई कारण है, जिसमें विशेषकर उद्योगों का नितांत अभाव, जल संरक्षण के प्रबंधन में कमी, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन तथा बड़े शहरों में लगातार कार्य मिलना पलायन का प्रमुख कारण नजर आता है। बुंदेलखंड में पहले की जातीय पंचायते अपने आप में नजीर हुआ करती थीं, ये जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर दंड में प्रायः उससे तालाब बनाने को कहती थीं। बुंदेलखंड में औसत बारिश 80 सेंटीमीटर है, जिससे यहां पानी की कमी बनी रहती है। केंद्रीय भूजल बोर्ड बताता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र के जिलों के कुओं में पानी का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है और भूजल हर साल 2 से 4 मीटर के हिसाब से गिर रहा है, वहीं दूसरी ओर हर साल बारिश में गिरने वाले 70 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी में से मात्र 15 हजार मिलियन क्यूबिक मीटर पानी ही जमीन के अंदर में उतर पा रहा है।

हमें यह भी विचार करना होगा कि भूमि सुधारों की असफलता से भी तो कहीं पलायन में वृद्धि नहीं हुई है। क्योंकि बुंदेलखंड क्षेत्र में यह बात स्पष्ट तौर पर नजर भी आती है। भूमि सुधार को लेकर विश्व श्रम संगठन की यह टिप्पणी इसके एक नए आयाम पर रोशनी डालती है। संगठन ने अपने एक अध्ययन में पाया कि ‘भूमि सुधार कार्यक्रमों से उन परिवारों से पलायन में कमी आ सकती है जहां इसके परिणामस्वरूप उनके भूखंड को आकार में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हुई हो, परंतु इसकी वजह उन समूहों से पलायन में वृद्धि हो सकती है जिनकी स्थिति इस सुधार से प्रभावित हुई हो। बड़े भूखंडों के टूटने से श्रमिकों की मांग कम होती है क्योंकि छोटे खेतों में उन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। हालांकि उनमें अधिक श्रम की आवश्यकता तो होती है लेकिन इन्हें अक्सर परिवार के द्वारा ही संचालित किया जाता है। जिन भूमिहीन श्रमिकों को इस प्रक्रिया में भूमि नहीं मिल पाती उन्हें अंततः पलायन हेतु मजबूर होना पड़ता है।’कहीं कहीं आज भी ये हालात हैं कि प्रमुख जलस्रोतों पर दबंगों का कब्जा है और वे अपने समूह के अलावा किसी को उसका उपभोग नहीं करने देते।

बुंदेलखंड के घाव अब गहरे होते जा रहे हैं। एक सुनहरे अतीत से निरंतर सुखाड़ वाले इलाके में बदलने वाले बुंदेलखंड की मौजूदा समस्याओं को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। चारों तरफ पहाड़ी श्रृंखलाएं, ताल-तलैये और बारहमासी नालों के साथ काली सिंध, बेतवा, धसान और केन नदियों वाले क्षेत्र का वर्तमान बहुत दुखदायी हो चुका है। यहां की जमीन खाद्यान्न, फलों, तंबाकू और पपीते की खेती के लिए बहुत उपयोगी मानी गई है। यहां सारई, सागौन, महुआ, चार, हर्र, बहेड़ा, आंवला, घटहर, आम, बेर, धुबैन, महलोन, पाकर, बबूल, करोंदा, समर के पेड़ खूब पाए जाते रहे हैं। यह इलाका प्रकृति के कितना करीब रहा है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के नाम वृक्षों के नाम वृक्षों (जमुनिया, इम्लाई), जलाशयों, कुओं (सेमरताल), पशुओं, (बाघडबरी, हाथीसरा, मगरगुहा, झींगुरी, हिरनपुरी), पक्षियों, घास-पात या स्थान विशेष के पास होने वाली किसी खास ध्वनि के आधार पर रखे गए, पर अब इस अंचल को विकास की नीतियों ने यहां खेती को भी सुखा इलाका बना दिया है। पिछले 10 वर्षों में बुंदेलखंड में खाद्यान्न उत्पादन में 55 फीसदी और उत्पादकता में 21 प्रतिशत की कमी आई है। बुंदेलखंड में मजदूरों और किसानों पर त्रासदी का ये आलम है कि यहां का मजबूर और पीड़ित कृषक खुद ही खुदकुशी करने को विवश है।

बुंदेलखंड राज्य निर्माण है कितना जरूरी?

कहते हैं कि किसी भी राज्य की सीमायें कागज के नक्शे पर लकीरें खींचकर तय नहीं की जाती है। किसी भी नवीन राज्य निर्माण के लिए तथा मौजूदा राज्य के पुनर्गठन के लिये राज्य पुनर्गठन कानून 1956 का सहारा लिया जाता है। बात बुंदेलखंड के संदर्भ में कही जाए तो यहाँ की बेरुखी और बदहाली ही राज्य निर्माण की द्योतक है। बुंदेलखंड शब्द मात्र चिंतन से जन मानस के पटल पर शौर्य, वीरता, ओज, देशभक्ति एवं त्याग का भाव अनायस ही चित्रित हो उठता है। यहां के विशाल दुर्ग, पत्थरों का सीना पार करती हुई खूबसूरत नदियां, प्राचीन मूर्तियां, विभिन्न महलों एवं मंदिरों के भग्नावशेष अतीत के गौरव की कहानी कहते हैं। यहां की खनिज सम्पदा व पुरातत्व अवशेष केंद्र व राज्य के राजस्व में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इतिहास उद्धरित करता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र जो कभी मुगल या ब्रिटिश शासकों के पूर्णतः अधीन नहीं रहा, एक वीरतापूर्ण इतिहास रखता है। वीरांगना के शौर्य एवं पराक्रम की अप्रियतम कथा युगों-युगों से जनमानस के लिये प्रेरणा स्त्रोत बनी हुई है। लेकिन आज गौरवशाली बुंदेलखंड की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। सूखा, अकाल, बेमौसम बारिश और प्रकृति की रुसवाई हर वर्ष देखने को मिलती है।

बुंदेलखंड जिसके खंड खंड में गरीबी और बेरोजगारी समायी हो, जिसकी जमीन पथरीली, बीहड़ और बंजर हो। जहां बैंक और साहूकार के कर्ज में डूबा किसान खुद ही खुदकुशी करने को विवश हो। जहां हर साल अगली फसल लेने के लिये सरकारी इमदाद की आस हो। उस बुंदेलखंड का पिछड़ापन कहीं ना कहीं सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश और समृद्धशाली मध्यप्रदेश की चकाचौंध में छिप सा जाता है।

बुंदेलखंड राज्य निर्माण जनहित के लिए परम् आवश्यक है, जिसके प्रमुख तथ्य निम्न प्रकार हैं।

खनिज संपदा:- ऐसा नहीं है कि बुंदेलखंड में हर चीज का अभाव ही अभाव है, यहाँ खनिज संपदा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पन्ना जहां हीरा के लिए विश्व विख्यात है, जिसके हिनौता तथा मझगवां एवं छतरपुर के अंगोर गांव से लगभग 40000 कैरेट हीरा निकाला भी जा चुका है। बाँदा में बॉक्साइट, रॉक फोस्फेट्स, डोलोमाईट तथा कुछ मात्रा में हीरा, ललितपुर में यूरेनियम, तांबा तथा पाइरोफिलाइट, हमीरपुर में सेलखड़ी तथा जिप्सम, चोरई में ग्रेनाइट चट्टानें, टीकमगढ़ में पाइरोफिलाइट, लौह अयस्क तथा वहां के बंधा बहादुर में सीसा अयस्क गैलिना, इसके साथ ही सागर में एस्बेस्टस तथा निकिल के प्रचुर भंडार हैं। यहां वास्तु पत्थर के अक्षय भंडार हैं तो यहाँ का बालू पत्थर अपने सुहावने रंग, एक समान कणों, नियमित संस्करण, सुगम सुकरणी यता तथा चिरस्थायित्व का लोहा मनवाता है, जिसकी जर्मनी, जापान तथा इटली जैसे देशों में बेहद मांग है। यहाँ का ग्रेनाइट पत्थर अपने गठन, कठोरता तथा सुंदरता के वजह से अलंकरण पत्थर के रूप में प्रयोग किया जाता है। कूड़ियों तथा प्यालियों के निर्माण में प्रयोग होने वाला गोरा पत्थर भी कई स्थानों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सफेद चिकनी मिट्टी के मृतिका शिल्प और दुर्गलनीय ईंटो के निक्षेप भी यहां मौजूद हैं।

पर्यटन के असीम अवसर:-शौर्य एवं साहस के प्रतीक महोबा के चंदेल शासकों, आल्हा-ऊदल, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि की कर्मस्थली रहा बुंदेलखंड भारतीय टूरिज्म का हब बन सकता है। यहां पर्यटन के लिए आने वाले देशी-विदेशी सैलानी विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के शिल्प सौन्दर्य के अलावा समूचे विंध्य क्षेत्र में बिखरी लोककला संस्कृति तथा साहित्य से भी रूबरू हो सकते हैं। पर्यटकों को एक ओर जहां खजुराहो के देवालयों के निर्माता चंदेल शासकों के गौरवशाली अतीत की अक्षुण्य स्मृतियों एवं पुरातात्विक महत्व की ऐतिहासिक धरोहरों से बाबस्ता होने का मौका मिल सकता है। वहीं दूसरी ओर वे विंध्य क्षेत्र को प्रकृति प्रदत्त अद्भुत और अनूठे सौन्दर्य को निकटता से निहारने का अवसर भी प्राप्त कर सकते हैं। पर्यटन विकास के इस क्रम में यहां चित्रकूट और ओरछा का धार्मिक पर्यटन है, वहीं झांसी, महोबा, कालिंजर का वीरोचित इतिहास और उससे जुडी़ ऐतिहासिक धरोहरें भी लोगों को अपनी ओर निहार सकती हैं। देखें तो बुन्देलखण्ड ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्मारकों का एक कोषागार है। छतरपुर जनपद में मलहरा के निकट चारों ओर वन से घिरा भीमकुण्ड अत्यन्त रमणीक है। पन्ना के वृहस्पति तथा भैरव कुण्ड दर्शनीय है। महोवा के विजयसागर के अपनी छटा है। केन नदी के रनेह तथा पाण्डव प्रपात पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं। ओरछा और चित्रकूट तपोभूमि है। कालीं का स्वर्गवाह कुण्ड और भैरव की मूर्ति पर्यटकों को आकर्षित करने में सक्षम है। जैनियों के महत्वपूर्ण तीर्थ सोनागिरि, द्रोणागिरि, देवगढ़ राष्ट्रीय तीर्थ हैं। शिल्प तथा स्थापत्य कला में खजुराहों अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक निधि है। बुन्देलखण्ड में प्रत्येक रुचि के पर्यटक के लिए आकर्षक है। यहाँ पर्यटन उद्योग को बढ़ाने के लिए प्रचुर सामग्री तथा विभव है।

जल संसाधन:- केन, बेतवा, चम्बल, सिन्ध, पहुज, नर्मदा, धसान, पयस्वनी, यमुना आदि नदियों के स्रोत होते हुए भी बुंदेलखंड जल विहीन है। बालू माफियाओं द्वारा दिन-रात उनका सीना चीरा जा रहा है। शुद्ध पेयजल आपूर्ति आज भी बुन्देलखण्ड की जटिल समस्या बनी हुई हैं। वर्षा ॠतु में विप्लवी बाढ़, जान औश्र माल की भीषण हानि करती हैं। वहीं ग्रीष्म ऋतु में प्रकृति की रुसवाई आपदा का कारण बन जाती है। सूखा पड़ जाने पर दुर्भिक्ष मनुष्य और घरेलू पशुओं की जान तक की शामत आ जाती है। यदि आधुनिक तकनीकों से जल का संरक्षण और बेहतर प्रबंधन किया जाये तो बुंदेलखंड की धरा भी खेतों में सोना लहलहाने का कार्य करेगी। बुन्देलखण्ड में औसतन 70000 लाख टन घन मीटर पानी प्रति वर्ष वर्षा द्वारा उपलब्ध होता है। दुर्भाग्य का विषय है कि इसका अधिकांश भाग तेज प्रवाह के साथ निकल जाता है और जो भाग भूमिगत हो जाता है उसके बारे में किसान को जानकारी ही नहीं होती है। बुन्देलखण्ड की भूमि की उर्वरता विलक्षण है, मौसम की अनियमितता ही प्रायः उत्वादन में अवरोध करके अकाल की स्थिति उत्पन्न करता है। यहां जल की कमी नहीं वरन् व्यवस्था की अनियमितता है जो मुख्यतः उपेक्षाजनित है।

केन्द्रीय सिंचाई एवं विद्युत मन्त्रालय के भौमजल सांख्यकी सन् 1985 के अनुसार बुन्देलखण्ड में 131021 लाख घन मीटर भौम जल प्रतिवर्ष उपलब्ध रहता है। इस विशाल भण्डार में केवल 14355 लाख घन मीटर जल का ही उपयोग किया जाता है। शेष 116666 लाख घन मीटर प्रतिवर्ष अछूता ही रह जाता है। पूरी क्षमता का 10.95 प्रतिशत ही उपयोग में लिया जाता है। विभिन्न जनपदों में 3.2 से 31.1 ही भौम जल का उपयोग प्रतिवर्ष होता है। न्यूनतम उपयोग दमोह तथा बांदा जपनद में तथा अधिकतम टीकमगढ़ में 31.1 प्रतिशत होता है। ग्रेनेटिक क्षेत्र का विस्तार 14628 वर्ग किलोमीटर है। पठारी क्षेत्र भी बुन्देलखण्ड में पर्याप्त है। चित्रकूट क्षेत्र के इसी शैल समूह में गुप्त गोदावरी, हनुमानधारा कोटितीर्थ, देवांगना, बांके-सिद्ध आदि जलस्रोत है। अनुसुइया नामक स्रोत से ग्रीष्मकालीन जलप्रवाह 84950 ली. प्रति मिनट है। चित्रकूट जनपद के पाठा क्षेत्र में गत सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि 150 से लेकर 200 मीटर बालू की तह के नीचे चूने के शैल समूह में अटूट भौम जल का भण्डार है। यहां नलकूपों का निर्माण किया जा सकता है, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के 50 वर्ष उपरांत भी यह क्षेत्र उपेक्षित है।

औद्योगिक विकास:- औद्योगिक दृष्टि से बुन्देलखण्ड में बड़े उद्योगों का नितांत अभाव है। झांसी में डिफेंस कॉरिडोर के आने से सपनों में पंख जरूर लगे हैं, लेकिन सपनों के धरातल पर उतारने में अभी वक्त लग सकता है। इसके अलावा डायमण्ड सीमेन्ट वर्क्स नरसिंहगढ़ – दमोह, भारत हैवी इलेक्ट्रिक लिमिटेड झांसी, वैद्यनाथ औषधि निर्माण झांसी आदि उद्योग भी उल्लेखनीय हैं। मध्यम एवं लघु उद्योग भी अत्यल्प संख्या में है। रानीपुर का टेरीकॉट – वस्र उद्योग, बीड़ी उद्योग आदि रोजगार प्राप्ति के लघु प्रयास हैं। बुन्देलखण्ड की खनिज सम्पत्ति यथा कांच उद्योग तथा अनेक उद्योगों को स्थापित करने में यह प्रदेश समर्थ है।

वन संसाधन:- राष्ट्रीय वन्य नीति के अनुसार 33 प्रतिशत भू-भाग में वन होना चाहिए। इसके प्रतिकूल बुन्देलखण्ड में केवल ९ प्रतिशत ही वन है। पन्ना दमोह सागर जनपदों में वनों का क्षेत्रफल 32 प्रतिशत है। उच्च कोटि के सागौन तथा शीशम की लकड़ी की अत्यधिक मांग है। तेन्दू की पत्ती के कारण हजारों परिवारों का भरण-पोषण होता है। बुन्देलखण्ड विकास निगम लाखों रुपये की आय प्राप्त कर रहा है। खैर की लकड़ी से कत्था उद्योग चल रहा है। औषधि निर्माण के लिए कच्चे माल की कमी नहीं है। महुआ खाने तथा तेल निकालने के काम आता है। बेल, आंवला, बहेरा, अमलतास, अरुसा, सपंगंधा, उ गिलोय, गोखरु आदि प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। फलों में शरीफा, बेर, चिरौंजी, खजुरिया, करौंदा आदि होते हैं। कई स्थानों पर बबूल की गोंद बड़ी मात्रा में एकत्रित की जाती है, इनके माध्यम से टिम्बर फर्नीचर औषधि, कागज खिलौने, माचिस, सेन्ट आदि का कच्चा माल प्रदान करने में प्रदेश सक्षम है। वन्य प्राणी भी हमारी राष्ट्रीय सम्पदा है। उनकी सुरक्षा भी समय की पुकार है तथा पर्यटन आय में सहायक है। परोक्ष रूप से सूखा तथा बाढ़ को वन सम्बर्धन द्वारा यथासमय नियंत्रित किया जा सकता है।

पान उत्पादन में अग्रणी:- बुन्देलखण्ड पान के उत्पादन के लिए प्राचीन काल से विख्यात है। देशावरी पान लगभग 5-6 करोड़ रु. का निर्यात होता है। महोबा में पान प्रयोग और प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित है। ललितपुर तथा छतरपुर जनपद भी पान के उत्पादन के लिए ख्याति प्राप्त है। उचित संरक्षण से पान निर्यात में वृद्धि हो सकती है।

राज्य निर्माण आंदोलन:- बुंदेलखंड राज्य निर्माण के गठन की लडाई कोई नयी नहीं है, यह बहुत पुरानी लड़ाई है। यह देश की आजादी के बाद से ही शुरू हो गयी थी। बुंदेलखंड क्षेत्र के राजा-राजबाड़ों ने विलय के समय राज्य निर्माण की संधि पर केंद्र सरकार से समझौता किया था और उसी समझौते के बाद बुंदेलखंड राज्य का गठन भी हुआ था और पहले मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना बने थे। राजनैतिक चक्रव्यूह में फंसे इस क्षेत्र का यह सपना बहुत लंबा नहीं चला और कुछ माह बाद ही इस राज्य को भंग कर इसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बांट दिया गया। इस तरह राजनैतिक दलों के विश्वासघात के दंश में जनता आजादी के बाद से लगातार राज्य निर्माण के गठन की मांग करती आ रही है। शंकर लाल मेहरोत्रा ने बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के साथ लड़ाई को आगे बढ़ाया तथा एक निर्णायक अंजाम तक पहुंचाया। इसके साथ ही लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में पूर्व सांसद लक्ष्मी नारायण नायक, पूर्व सांसद गंगाचरण राजपूत, पूर्व मंत्री विट्ठल भाई पटेल, मुकुंद कुमार गोस्वामी, पूर्व मंत्री प्रदीप जैन आदित्य, फ़िल्म अभिनेता राजा बुंदेला, कांग्रेस के पूर्व प्रदेश महासचिव भानु सहाय के साथ बुंदेलखंड के सम्मानित जन सत्येंद्र पाल सिंह, हरीश कपूर टीटू, बाबूलाल तिवारी, डॉ. धन्नूलाल गौतम, मोहन नेपाली, गौरीशंकर बिदुआ, संजय पांडेय आदि महान विभूतियों द्वारा विभिन्न संगठनों के जरिये राज्य निर्माण की लड़ाई में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है।

पिछड़ेपन का कारण:-बुन्देलखण्ड का पिछड़ापन इसके दो भिन्न-भिन्न राज्यों में बंटे होने के कारण है, जिससे बुंदेलखंड के लिये राज्यों के द्वारा संयुक्त नीतियां नहीं बनायी जा सकती हैं। बुंदेलखंड की भौगोलिक परिस्थितियां भी दोनों राज्यों से मेल नहीं खाती हैं। यहाँ की जरूरतें भी अलग हैं, तो यहां की सम्पन्नता भी अलग क्षेत्र में है। संयुक्त नीतियों के अभाव का एक उदाहरण यह है कि प्रसिद्ध तीर्थ चित्रकूट पयस्विनी नदी के इस पार और उस पार के उ.प्र., म.प्र. के विभाजन से अविकसित है। इसी प्रकार ओरछा झांसी के अत्यन्त सन्निकट है। कालीं और खजुराहो भी दोनों सरकारों के संयुक्त नीतियों के अभाव में दुष्प्रभावित है। डाकुओं की समस्या को भी दोनों सरकारों की सीमा सन्निकटता से प्रश्रय प्राप्त होता है और उनका दमन दुष्कर हो जाता है। औद्योगिक दृष्टि से इसके पिछड़ेपन को इसी बात से समझा जा सकता है कि 500 एकड़ उद्योग क्षेत्र में मात्र 20 लघु उद्योग चल रहे हैं, और शेष बीमार हैं।

ऐसा नहीं है कि मौजूदा सरकारों ने बुंदेलखंड के लिये कुछ नहीं किया। वर्ष 2009 में यूपीए शासनकाल में केंद्र सरकार द्वारा बुंदेलखंड को 7400 करोड़ रुपये का बुंदेलखंड राहत पैकेज दिया गया। जिससे तालाब, कुंए, चैकडेम, नहरें, दूध डेयरी, नलजल योजनाएं, कृषि उत्पादन मंडिया, तथा बकरी पालन में पैसा खर्च किया गया। लेकिन नेता और नौकरशाहों ने मिलकर पैसे का ऐसा बंदरबांट किया कि बाद में पता चला कि बुंदेलखंड पैकेज तो बकरियां ही खा गयीं। वैसे पैकेज के निगरानी के लिये एक कमेटी बनायी गयी थी, लेकिन उसके पास कोई शक्ति नहीं थी। नतीजा वही निकला ढाक के तीन पात। अतः आप स्वयं अनुभूत कर सकते हैं कि बुंदेलखंड राज्य निर्माण बुंदेलखंड वासियों के लिए कितना जरूरी है।

मोमबत्ती से कहीं बत्ती ना बुझ जाए!

वैसे कहा जाता है कि दीये की रोशनी से विषाणु नष्ट हो जाते हैं और पर्यावरण स्वच्छ होता है और जब यही दीये करोड़ों की संख्या में एक साथ प्रज्वलित हों तो ये किसी देश की संकट की घड़ी में भी एकजुटता को प्रदर्शित करते है। यूँ तो कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने अपने संक्रमण से समूचे विश्व को झकझोर कर रख दिया है एवं विश्व की तमाम महाशक्तियां भी इससे बुरी तरह पस्त हो गयी हैं। चीन से भौगोलिक सीमा लगी होने के कारण भारत में भी स्थिति ज्यादा अनुकूल नहीं है। देश के प्रधानमंत्री जी द्वारा स्वयं आगे बढ़कर मोर्चा संभालने से हमने इसके संक्रमण को फैलने से रोकने में हमने काफी हद तक सफलता पायी है। सभी का सहयोग मिलने से आगे की राह भी आसान हो गयी है। केंद्र के साथ मिलकर राज्य सरकारें भी हरसंभव मदद कर रही हैं। जिससे महामारी की मार से भारत अन्य देशों के मुकाबले काफी कम प्रभावित हुआ है।

कोरोना वायरस ने भले ही महामारी के रूप में हमारे देश में दस्तक दी हो, लेकिन हमारे देशवासियों ने अपने प्रधानमंत्री जी के आह्वान पर यथासावधानी बरतते हुए इसे एक उत्सव के रूप में ही लिया है। ताली, थाली और शंख बजाने के बाद अब दीपक के उजाले से कोरोना वायरस रूपी अंधकार को भगाने के लिये सभी 5 अप्रैल रात 9 बजे का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री जी के इस ब्लैकआउट आह्वान का हमें गंभीर परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं, क्योंकि बिजली उत्पादन और खपत में अचानक आये परिवर्तन से पावर ग्रिड के फैल होने का हमेशा ही भय बना रहता है।

केंद्रीय विद्युत विनियामक प्राधिकरण(सेरा) के द्वारा बिजली पावर ग्रिडों को प्रबंधित किया जाता है। वह राज्य संचालित पावर सिस्टम कॉपरेशन लिमिटेड (पोस्को) के माध्यम से ग्रिड की सुरक्षा और सुचारू बिजली आपूर्ति करता है। बिजली के प्रवाह को घटाने या बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय लोड डिस्पैच सेंटर का सहारा लिया जाता है। सामान्य रूप से एक ग्रिड को 49.95 हर्ट्ज से 50.05 हर्ट्ज बैंड की फ्रीक्वेंसी की आवश्यकता पड़ती है। अचानक से खपत या उत्पादन में आयी कमी या वृद्धि ग्रिड फैल होने का कारण बन जाती है। बिजली का उत्पादन मांग अनुरूप ही होता है एवं सीमा से अधिक बिजली का संग्रहण हो ही नहीं सकता है। सूत्रों के मुताबिक इस 9 मिनिट के ब्लैकआउट से लगभग 3000 MW की खपत में कमी आ सकती है, जिससे हाई वोल्टेज की समस्या खड़ी होगी और ग्रिड फैल भी हो सकता है। इस कमी को लोड डिस्पैच सेंटर के द्वारा नियंत्रित किया जायेगा, लेकिन नियंत्रित करने की भी एक सीमा होती है, अनुमान के मुताबिक सिर्फ प्रकाश के उपकरणों से आने वाली कमी को तो एक हद तक नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन एक साथ समूचे देशवासियों ने अगर पूर्ण शटडाउन ले लिया तो प्रकाश की जगह रात्रि अंधकार में ही गुजारने पड़ेगी और कुछ दिन तक बिजली नसीब ही नहीं होगी। वैसे भी साल 2012 का ब्लैकआउट अभी भी लोगों की आंखों से ओझल नहीं हुआ है।

इस ग्रिड फैल होने से बचाव के लिये सेरा(केन्द्रीय विद्युत विनियामक प्राधिकरण) को निर्देशित करना चाहिए कि रात्रि 9 बजे 9 मिनट के लिए उत्पादन में आवश्यकतानुसार कमी की जाए। पोस्को( पॉवर सिस्टम ऑपरेशन कारपोरेशन लिमिटेड) के माध्यम से लोड डिस्पैच सेंटर को अलर्ट मोड़ पर रखा जाए, जिससे किसी भी बड़ी समस्या से आसानी से निपटा जा सके। अचानक खपत में कमी ना आये इसके लिए प्रतिष्ठानों एवं स्ट्रीट लाइटों को चालू रखा जाये। आमजन को सिर्फ रोशनी के उपकरणों को छोड़कर बाकी सभी उपकरणों को चालू रखने के लिए प्रेरित किया जाये।

नौकरी लगाकर दांव पर, लेखपाल हड़ताल पर।

लेखपाल हैं कि अपनी नौकरी दांव पर लगाकर हड़ताल पर बैठे हैं। शासन ने एस्मा लगाकर भले ही हड़ताल निषिद्ध कर दी हो, एस्मा कानून के तहत सर्विस ब्रेक, निलंबन और बर्खास्तगी जैसी उनपर बड़ी कार्यवाहियां कर दी हो, लेकिन लेखपाल हैं कि मानने वाले ही नहीं है। पूरा प्रदेश में राजस्व से संबंधित लगभग सभी कार्य पूर्णतः ठप हो चके हैं। सर्द मौसम में ना तो निराश्रित/असहाय लोगों को अभी तक कंबल बंट सके हैं, ना ही अलाव की ठीक व्यवस्था हो पा रही है। कृषक, छात्र, बेरोजगार युवा, पेंशन लाभार्थी, रियल इस्टेट कटोबारी और टेंडर ठेकेदार सभी इस हड़ताल से बुरी तरह प्रभावित हो गये हैं। राजस्व न्यायालयों में भी इसका असर दिख रहा है, वहां भी सिर्फ तारीख पर तारीख मिल रही है। किसी को समझ नहीं आ रहा है कि इस हड़ताल का कब और क्या परिणाम निकलेगा।

लेखपाल अपने वेतन, भत्ते, पेंशन और उनकी विसंगतियों की लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन शासन के उपेक्षापूर्ण रवैये और अतीत के कड़वे अनुभवों के कारण लेखपाल अब अपने कदम पीछे खींचने को तैयार ही नहीं है। प्रशासन की तरफ से की जा रही दमनात्मक कार्यवाहियां भी उनके हौसले नहीं डिगा पायी हैं। लेखपालों के पिछले आंदोलनों के दौरान बनी सहमति तथा मा.मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, अपर मुख्य सचिव महोदया से हुई उ.प्र.लेखपाल संघ के प्रतिनिधिमंडल की सौहार्दपूर्ण वार्ता पर भी अभी तक शासनादेश निर्गत ना होने तथा ठोस कार्यवाही ना होते देख उन्हें पुनः आंदोलन करने को मजबूर होना पड़ा है।

लेखपाल प्रमुख रूप से ग्रेड वेतन परिवर्तन, वेतन विसंगति, पेंशन विसंगति, भत्तों में वृद्धि तथा तहसीलों में बैठने के लिये मूलभूत सुविधाओं की मांगो को लेकर काफी समय से आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन शासन ने उनकी मांगों को सुनने के बजाय दमनात्मक कार्यवाहियों का सहारा लिया है, जिससे उनका आंदोलन खत्म होने के बजाय और भी बढ़ गया है। अभी तक उ.प्र. लेखपाल संघ के पदाधिकारियों की शासन से ना तो वार्ता हो पायी है, ना ही उन्हें अपनी मांगों के संदर्भ में कोई ठोस आश्वासन मिला है। जिसका परिणाम यह निकल रहा है कि तहसीलों में कामकाज पूर्णतः ठप हो गया है वहां फाइलों का ढ़ेर लग गया है, भू अभिलेखों तथा राजस्व से सम्बंधित कोई कार्य नहीं हो पा रहा है। छात्रों के प्रमाण पत्र नहीं बन पा रहे हैं, कृषकों को खाद, बीज, ऋण और कृषि यंत्र लेने के लिये उनकी जमीन से संबंधित भू-अभिलेख नहीं मिल पा रहे हैं, किसी की पेंशन रुक गयी है तो किसी की नौकरी का सत्यापन रुका पड़ा है, चरित्र तथा हैसियत प्रमाण पत्र नहीं निर्गत हो पा रहे हैं। लेखपालो की हड़ताल से ग्राम समाज की बंजर एवं परती भूमि, चारागाह एवं उस पर पहुंचने के लिए सार्वजनिक मार्ग तथा चकरोड से कब्जा भी नहीं हट पा रहा है। किसानों से जुड़ी महत्वकांक्षी योजना प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना पर भी विराम सा लग गया है।

उ.प्र. लेखपाल संघ ने अपने वृहद कार्यक्रम के दौरान पहले अतिरिक्त हल्के का कार्य करना बंद किया, फिर मोटरसाइकिल रैली निकालकर उसका सरकारी कार्य में प्रयोग करना बंद कर दिया। अपनी छवि में सुधार के लिए उन्होंने स्थापना दिवस के दिन रक्तदान भी किया। लेकिन मांगों पर कोई कार्यवाही ना होते देख उन्होंने 10 दिसम्बर से पूर्ण कार्य बहिष्कार भी प्रारंभ कर दिया है, जो अभी तक अनवरत जारी है।

लेखपालों की समस्याओं पर विचार करने के लिए अन्य कर्मचारी संगठनों समेत मा. संसद सदस्यों तथा विधानसभा सदस्यों द्वारा भी समर्थन पत्र लिखे गए। उ.प्र. लेखपाल संघ को लगभग दो दर्जन पंजीकृत संगठनों का नैतिक समर्थन भी प्राप्त हुआ, लेकिन शासन की तरफ से उनकी मांगो पर विचार करने और हड़ताल समाप्त कराने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया, जिससे अभी तक लेखपाल हड़ताल पर हैं, तथा शासन के सभी बड़े अधिकारियों ने चुप्पी साध ली है।

किसी भी समस्या का हल बातचीत से ही निकलता है। अभी तक दोनों ही पक्षों की बातचीत नहीं हो सकी है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां लेखपाल संघ का कहना है कि मा. मुख्यमंत्री जी जो कि राजस्व मंत्री भी हैं, उनको लेखपालों की वस्तुस्थिति से अवगत नहीं कराया जा रहा है, ना ही कोई वार्ता करायी जा रही है। वहीं शासन की पक्ष है कि पहले हड़ताल समाप्त की जाये, फिर उनकी प्रत्येक मांग पर विचार किया जाएगा।

शासन और लेखपालों के बीच बने गतिरोध में कहीं ना कहीं आम जनता पिस रही है। अगर शीघ्र ही कोई ठोस निर्णय नहीं लिया जाता है तो आम जनमानस में रोष बढ़ता ही जायेगा, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ सकता है।

सीएए विरोध क्यों?

सीएए यानि नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 अभी अपने विरोध प्रदर्शनों को लेकर काफी चर्चा में है। धार्मिक उत्पीड़न के प्रताड़ित अल्पसंख्यक जो कुल तीन मुल्कों(पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांग्लादेश) के कुल 6 धर्म के लोग (गैर मुस्लिम) हैं तथा विदेशी अधिनियम 1946 तथा पासपोर्ट अधिनियम 1920 के प्रावधानों के तहत अवैध प्रवासी घोषित हो चुके हैं, लेकिन यदि वह 31 दिसंबर 2014 से पूर्व भारत में रह रहे हैं, और भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं तो सीएए के मानदंडों को पूरा करने पर उन्हें इस अधिनियम के तहत भारतीय नागरिकता प्रदान कर दी जायेगी। इससे यह लाभ होगा कि वह अपने बच्चों के स्कूल में होने वाले दाखिले, उनकी नौकरी तथा अन्य जगह आने वाली नागरिकता से संबंधित समस्याओं से आसानी से निजात पा सकेंगे। अभी मौसम जितना सर्द है, इसके विरोध की आग उतनी ही गर्म है। पूर्वोत्तर राज्यों से उठे इस विरोध ने दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल तथा पुडुचेरी समेत पूरे भारत को अपने चपेट में ले लिया है। दिल्ली की जामिया से लेकर पुडुचेरी यूनिवर्सिटी तक, यूपी में एएमयू तथा कुछ मुस्लिम शैक्षिक संस्थानों में भी विरोध के स्वर छात्रों तथा बुद्धजीवियों तक भी पहुंच गये हैं। जहाँ यूपी की राजधानी लखनऊ को उपद्रवियों ने अपने तांडव का बुरी तरह शिकार बनाया तो असम भी पहले ही बुरी तरह झुलस चुका है। विरोध प्रदर्शन हैं कि थमने के नाम ही नहीं ले रहे हैं।

विरोध की एक ठोस वजह इसको एनआरसी से जोड़कर देखने पर नजर आ रही है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर चल रहे एनआरसी का कार्य लगभग अंतिम चरणों में है, लेकिन उसके निकलकर आने वाले आँकड़े बेहद चोंकाने वाले है। एक नजर डालें तो पता चलता है कि अमूमन उन्नीस लाख लोग अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर सके हैं। एक अनुमान के मुताबिक इसमें पांच लाख चालीस हजार लोग बंगला हिन्दू भी हैं। असम समेत पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों को यही डर है कि ये सभी घुसपैठिये सीएए कानून के तहत भारतीय नागरिकता आसानी से ले लेंगे, जिससे उनकी विशिष्ट भाषा तथा विशिष्ट संस्कृति गौड़ हो जाएगी एवं उनकी जमीन का प्रयोग घुसपैठ के लिए आसानी से किया जाएगा। जिससे उनके राज्य के संसाधनों तथा मूल निवासियों के अवसरों में कमी आएगी।

इस कानून के तहत मुस्लिमों को दूर रखा गया है, जिससे भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 14 और 15 के उल्लंघन की चर्चा हो रही है, अनुच्छेद 14 के अनुसार ‘राज्य किसी व्यक्ति को भारतीय राज्य क्षेत्र में विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’ वहीं अनुच्छेद 15 कहता है कि ‘राज्य धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान अथवा इनमें से किसी भी आधार पर नागरिको के मध्य विभेद नहीं कर सकता है।’

विरोध के स्वर इस बात को लेकर भी हैं कि सिर्फ तीन पड़ोसी मुल्कों को ही इसमें शामिल क्यों किया गया है? पाकिस्तान के अहमदिया एवं शिया मुस्लिमों को जो वहां अल्पसंख्यक एवं प्रताड़ित हैं, उनको इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया है? श्रीलंका के तमिल, नेपाल के मधेशी, म्यांमार के रोहिंग्या, तिब्बत के बौद्ध, बांग्लादेश के नास्तिक अल्पसंख्यक लोगों को और उनके धार्मिक उत्पीड़न को आधार बनाकर भी तमाम सवाल किए जा रहे हैं, जो कुछ हद तक हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य में सही भी प्रतीत हो रहे हैं।

सीएए को एनआरसी से जोड़कर देखना ही असली विरोध की वजह है, जबकि सीएए और एनआरसी दो अलग-अलग कानून है। जहां सीएए धर्म पर आधारित कानून है, वहीं एनआरसी का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। बिल के प्रावधानों के अनुसार सीएए भारतीय मुस्लिमों से किसी प्रकार संबंधित नहीं है, अतः उनकी नागरिकता का कोई खतरा नहीं है। छठी अनुसूची के पूर्वोत्तर राज्य यथा असम, मेघालय, त्रिपुरा तथा मिजोरम एवं इनर लाइन परमिट 1873 के राज्य जैसे अरुणांचल प्रदेश, मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर को भी इससे दूर रखा गया है। अतःसरकार के पक्षों के अनुसार वहां इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है। लेकिन एक वास्तिवकता ये भी है कि सरकार अब तक ये निर्णय नहीं कर पायी है कि असम में मौजूद घुसपैठियों को भारतीय नागरिकता प्रदान कर उन्हें कहाँ रखा जाएगा तथा सीएए कानून के तहत भारतीय नागरिकता पाने के लिये किन-किन वैध दस्तावेजों की आवश्यकता होगी। सिर्फ पोशाक देखने भर से धर्म का बता पाना इतना भी आसान नहीं है।

लेखपाल हड़ताल, आमजन बेहाल

ये लेखपाल बार बार हड़ताल पर क्यों चले जाते हैं? इत्ता पैसा तो लेते हैं, फिर भी पेट नहीं भरता क्या? अभी दो महीने पहले भी हड़ताल पर थे, अब क्या हो गया?

ये प्रश्न और उनकी भ्रष्ट छबि अब भले ही आम लगते हो, लेकिन इसके पीछे की वजह बेहद खास है। ब्रिटिश भारत से स्वतंत्र भारत तक में हमें कई भूमि और कृषि सुधार देखने को मिले, चाहे वह बिचौलियों(जमींदारों) का उन्मूलन हो या भूमि हदबंदी तथा काश्तकारी जैसे स्वर्णिम सुधार, लेकिन यदि कुछ नहीं बदला तो वह है पटवारियों(लेखपाल) के वेतन, भत्ते, पेंशन और उनकी विसंगतियां। भूमि पैमाईश तथा प्रशासन से सीधे जुड़े रहने के कारण इस पद को तकनीकी तथा विशिष्ट प्रकार का माना जाता है, जिससे वेतनमान में परिवर्तन की कई बार मांग उठी, लेकिन उनकी ये फाइलें वित्त विभाग में जाकर दब सी जाती है। वह आज भी साईकिल भत्ते के रूप में महज 3 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन पा रहे हैं तो स्टेशनरी के रूप में 100 रुपये महीना। समान सेवा पर समान मेहनताना का भले ही अब अधिनियम बन चुका हो, लेकिन ये इससे अछूते ही हैं। लेखपालों में कोई द्वितीय एसीपी के रूप में 16 वर्ष की सेवा पर 2800 ग्रेड पे पा रहा है तो कोई 4200 ग्रेड पे। यही हाल पेंशन विसंगति का है, एक बैच 2001 वाला है जिसके प्रशिक्षण और नियुक्ति में इतना अधिक प्रशासनिक समय लिया गया कि वो पुरानी पेंशन से ही वंचित हो गए, पदोन्नति का आलम ये है कि 35 से 38 वर्ष की सेवा पर एक अदद प्रमोशन भी बढ़ी मुश्किल से मिल पा रहा है।

अगर बात कामों की की जाये तो देखने पर पता चलेगा कि कामों का अंबार लगा हुआ है। भूमि अभिलेख तैयार करना, उनको अद्यतन तथा सुरक्षित करने से लेकर, ग्राम समाज की समस्त भूमि की रक्षा करना, तथा शासन के दिशानिर्देश अनुसार गांव की बंजर तथा परती भूमि को भूमिहीन, असहाय, विधवा तथा स्वतंत्रता सेनानियों में आवंटित कराना। फसलों की समय से पड़ताल करना तथा उनके ब्यौरे तैयार कर उनकी इकजाई कर राज्य तथा राष्ट्र के कृषि उत्पादन का पता लगाना। जिससे सरकारें कृषकों की दशा और दिशा को ध्यान में रखते हुए आगामी योजनाएं बना सके तथा उनकी भविष्य की फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) घोषित कर सके। इसके अलावा कई जनकल्याणकारी योजनाएं यथा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, आवास योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना, मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना, मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष राहत, मुख्यमंत्री कृषक एवं सर्वहित बीमा योजना, कन्या सुमंगला योजना, पारिवारिक आर्थिक लाभ योजना तथा वृद्धा/विधवा/दिव्यांग पेंशन आदि सभी योजनाओं का सत्यापन कर क्रियान्वयन लेखपालों के माध्यम से ही संचालित होता है।

शासन की अति महत्वकांक्षी प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का कार्य भी इनके द्वारा ही किया गया, लेकिन इन्हें कोई मानदेय नहीं मिला, जबकि पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश में इसी कार्य के लिए केंद्र और राज्य सरकार के अंश को मिलाकर प्रति खाता 18 रुपये भुगतान भी किया गया। इनके लिए अंतरमण्डलीय स्थानांतरण की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई, लेकिन उसमें इतनी खामियां निकली की पुनः ये प्रक्रिया ही प्रारंभ ही नहीं हो सकी। इसके साथ राजस्व निरीक्षक के पदों का अधियाचन मांगे जाने पर भी 1405 पदों का सृजन नहीं हो सका तो डीपीसी समय से नहीं होने पर प्रमोशन की आस लगाए बैठे लेखपालों को निराशा ही हाथ लगी है।

पिछले 5 नवंबर से लेखपालों का आन्दोलन चल रहा है, जिससे पहले से रिक्त पड़े 7694 लेखपाल क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले लगभग 20000 ग्रामों का काम पहले से ही ये लोग बंद कर चुके हैं, अब पूर्णतः कलमबंद हड़ताल से प्रदेश के 75 जिलों में सारे कार्य ठप हो चुके हैं। छात्रों के आय, जाति तथा निवास नहीं बन रहें हैं तो किसानों को उनकी भूमि के खसरा, इंतेखाब के नकल नहीं मिल पा रहे हैं जिससे बैंको से फसली ऋण लेना हो या खाद बीज तथा कृषि यंत्र लेना बड़ा दूभर हो गया है। किसी की पेंशन अटकी हुई है तो किसी की नौकरी का सत्यापन रुका पड़ा है। कहीं चकरोड पर कब्जे की शिकायत है तो कहीं सत्यापन के अभाव में सरकारी इमदाद रुक गया है। कुल मिलाकर कहें तो आमजन बेहाल हो गया है तो अन्नदाता खस्ताहाल हो गया है।

लेखपाल भी बेचारे करें तो क्या? जब भी हड़ताल करते हैं तो एस्मा लगा दिया जाता है, प्रशासनिक उत्पीड़नात्मक एवं दमनात्मक कार्यवाहियां तेजी से की जाती है। उ.प्र. लेखपाल संघ के प्रतिनिधिमंडल को बुलाकर उनसे कुछ समय लेकर आश्वासन दे दिया जाता है। हड़ताल भले ही खत्म हो जाती है, लेकिन समय निकल जाने के कई महिनों बाद फिर हड़ताल की नौबत आती है और परिणाम निकलता है वही ढाक के तीन पात।

सिक्सर किंग: युवराज सिंह

क्रिकेट के युवराज, इंडिया को दो-दो वर्ल्डकप दिलाने वाले, गेंदबाजों की लय बिगाड़कर उनके छक्के छुड़ाने वाले, क्षेत्ररक्षण में भारत के जोंटी रूडस, जरूरतानुसार लाजवाब स्पिन गेंदबाज कुल मिलाकर एक बेहतरीन हरफनमौला खिलाडी ने भावुक होकर अंतराष्ट्रीय क्रिकेट कैरियर से संन्यास लेने की घोषणा कर ही दी है, ज्यों ही उन्होने घोषणा की त्यों ही देश और विदेश में रहने वाले उनके तमाम क्रिकेट प्रशंसकों के आँखों में आँशू आ गये। अगर सच कहें तो निश्चित तौर पर ये एक युग का अंत है। युवी ने क्रिकेट में विरोधियों को मात देने के अलावा कैंसर जैसी घातक बीमारी को भी मात दी है। युवी सिर्फ क्रिकेट के ही नहीं प्यार कि दुनिया के भी लाजवाब खिलाड़ी रहे हैं। उनकी हेज़ल कीच के साथ लव स्टोरी किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं है, उनकी 3 साल की मेहनत और कई डेट के बाद ही वो 30 नवंबर 2016 को परिणय सूत्र में बंधे थे । उनकी पत्नी गुरवसंत कौर भारतीय मूल की ब्रिटिश मॉडल हैं, जो सलमान खान के साथ हिन्दी फिल्म बाॅडीगार्ड में काम कर चुकी हैं।

मात्र 19 साल के क्रिकेट कैरियर में युवी ने कुल 402 मैच खेलकर 11778 रन बनाये हैं, जिसमें उनके 17 शतक और 71 अर्धशतक शामिल हैं। युवी ने अपने कैरियर का पहला एकदिवसीय मैच 30 अक्टूबर 2000 को केन्या के खिलाफ तो पहला टेस्ट मैच 16 अक्टूबर 2003 को न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला था। युवी ने कुल 40 टेस्ट, 304 वनडे और 58 टी20 खेले हैं उनके नाम कुल 1900 टेस्ट मैच रन, 8701 एकदिवसीय रन, 1177 टी20 रन दर्ज हैं। युवी के कैरियर पर नजर डालें तो उपलब्धियों का अंबार दिखाई पड़ता है। क्रिकेट के शुरूआती दिनों में ही युवी को सन 2000 में अंडर19 क्रिकेट वर्ल्डकप का प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट मिला था। इसके अलावा 2007 के टी20 वर्ल्डकप में कई विश्वस्तरीय रिकॉर्ड उनके नाम जुड़े, वो चाहे पहली बार टी 20 के इतिहास में 6 गेंद पर 6 छक्के छुड़ाने का तमगा हो या मात्र 12 गेंद में अर्धशतक का रिकॉर्ड । युवी 2007 टी20 वर्ल्डकप के प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट भी रहे हैं। युवी ने भारत को 2011 का वर्ल्डकप भी दिलाया है तो 2014 में उनके अनूठे और अद्वितीय खेल के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित भी किया है।युवी ने भावुक होकर कहा कि इस खेल ने मुझे सब कुछ दिया है और मुझे आखिरी साँस तक हार नहीं मानना सिखाया है। दरअसल युवी का संघर्ष और समर्पण ही उन्हें दुनिया के बेहतरीन क्रिकेटरों की जमात में खड़ा करते हैं। निश्चित तौर पर युवी की जगह भर पाना भारतीय क्रिकेट में इतना आसान नहीं है।

युवी ने भले ही अंतराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया हो लेकिन उनके प्रशंसक उन्हें आईपीएल तथा ICC से मान्यता प्राप्त विदेशी टी20 लीग में खेलते हुए देख सकते हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि सीमित ओवरों के इन मैच में सिक्सर किंग किस तरह गेंदबाजों के छक्के छुड़ाते हैं।

ढेरों जिम्मेदारी, बिना संसाधन देश चला रहा पटवारी

लखनऊ इन्वेस्टर्स समिट में मा. प्रधानमंत्री जी द्वारा योगी सरकार और उनके अधिकारियों की सराहना करते हुए कहा गया कि मुख्यमंत्री जी की इच्छाशक्ति ने प्रदेश में निवेश का माहौल बनाया है। जिसका ही परिणाम है कि मात्र पांच महीने में उत्तर प्रदेश में उद्योग जगत के लोगों के बीच दूसरी बार इन्वेस्टर समिट करने का मौका मिला। जहाँ इसी साल के फरवरी में सवा चार लाख करोड़ के निवेश की नींव रखी गयी थी तो अब साठ हजार करोड़ की परियोजनाओं का शिलान्यास करना एक अद्भुत सफलता है। इन परियोजनाओं के लिए सरकार, अफसर और यहां के किसान भाई बधाई के पात्र हैं। मा. प्रधानमंत्री जी ने पटवारियों की तारीफ में भी कसीदे पढ़े, और कहा कि देश या तो पटवारी चला पाता है या फिर प्रधानमंत्री।

अक्सर देखने में आता है कि सरकार के लिये किसी भी बड़ी परियोजना के लिये जमीन उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होती है। चूंकि जमीन का रखरखाव और उनके अभिलेखों को अद्यतन करने की जिम्मेदारी पटवारी यानि कि लेखपाल की होती है। लेखपाल ही किसान भाइयों से सीधे संपर्क में रहता है, उसकी जिम्मेदारी तब और बढ़ जाती है जब कोई भूमि अधिग्रहण की बात सामने आती है क्योंकि उसकी स्वीकृति के बिना भूमि अधिग्रहण टेढ़ी खीर ही है। ऐसा समझा जाता है कि पटवारी के पास पहुंचा कागज अब आगे दो कदम भी नहीं चलने वाला है क्योंकि पटवारी महोदय शनि ग्रह की तरह रोड़ा बनकर सामने आ जाते हैं।

यूँ देखें तो पटवारी के पास कामों की कोई कमी नहीं है, वह राजस्व विभाग के अतिरिक्त लगभग 50 अन्य विभागों के भी काम करता है। उसके कामों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गरीब के घर में राशन पहुंचाने से लेकर अतिमहत्वपूर्ण सूचनाओं को शासन तक प्राथमिकता से पहुंचाने का कार्य करता है। लेखपाल की मदद से ही शासन कई जन कल्याणकारी योजनाओं का सही रूप से क्रियान्वयन कर पाती है।

जनमानस में एक भ्रांति ये भी फैल गयी है कि लेखपाल किसी भी कागज को अपनी चढ़ोत्तरी खातिर रोककर रखता है, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हकीकत इसके ठीक विपरीत है। कोई भी भूमिधरी विवाद जब कोर्ट- कचहरी में पहुंच जाता है तो मुवक्किल के अधिवक्ता और कोर्ट के पेशगार चंद पैसों के लालच में उसे तारिखों में उलझाये रहते हैं। किसान को तारीख करते करते वर्षों बीत जाते हैं और कोई भी हल नहीं निकलता है। इन महोदयों से कब्जा मुक्त होकर जब कोई कागज लेखपाल के हाथ पहुंचता है तो लेखपाल साहब के पास करने के लिये कुछ ज्यादा नहीं रह जाता है, क्योंकि संक्रमणीय भूमि की पैमाइश करना तक उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। वह अपनी आख्या लगा भी देता है लेकिन कागज को अभी भी तीन-चार निरीक्षणों से गुजरना पड़ता है, जिससे किसी ना किसी पटल पर खुशामद के अभाव में अटक ही जाता है। लेकिन लेखपाल के सीधे आम जनमानस से जुड़े होने के कारण उसको ही जिम्मेदार ठहराकर दोषारोपित कर दिया जाता है।

आज बिना संसाधन के पटवारी निरंतर कार्य करते चले आ रहे हैं। सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में लेखपालों की अत्यंत दयनीय स्थिति हैं। यहां वे बिना संसाधनों के विगत कई वर्षों से अनवरत कार्य करते चले आ रहे हैं। वह जब भी अपने अधिकारों और संसाधनों की मांग करता है तो उसे हठधर्मी बतलाकर उसकी आवाज को दबा दिया जाता है। उसको अगर कुछ हासिल होता है तो वह है सिर्फ झूठा और कोरा आश्वासन। वह आज भी मात्र 3 रुपये 33 पैसे के साइकिल भत्ते में प्रतिदिन 30 से 40 किलोमीटर की यात्रा करता है। इतने ही स्टेशनरी भत्ते में तमाम प्रार्थनापत्रों का निस्तारण और तमाम सूचनाएं शासन तक पहुंचाता है। डिजिटल इंडिया के देश में ऑनलाइन रिपोर्ट लगाने के नाम पर वह अपने बच्चों के हक के पैसों में से कुछ बचाकर निजी साईबर कैफे पर खड़ा है, जहां विभाग की गोपनीय जानकारी और पासवर्ड हैक होने का हमेशा भय रहता है। वेतन और पेंशन में विसंगति आज भी बनी हुई है। वह चपरासी के लगभग बराबर ग्रेड वेतन पा रहा है तो एक अदद प्रमोशन पाये बगैर ही सेवानिवृत्त हो जा रहा है। मा. मुख्यमंत्री जी के सर्वागींण विकास के लक्ष्य को पूरा होने में कोई वंचित रह रहा है तो वह है पटवारी। आदरणीय प्रधानमंत्री जी भले ही अपने संबोधन में कहें कि पटवारी देश चला रहें हैं लेकिन सच कहूं तो इस महंगाई के युग में पटवारी को अपना घर चलाना भी मुश्किल लग रहा है।

राहुल यादव

लेखपाल- झांसी

मो. 9450771044

कहीं भारी ना पड़ जाये, लेखपालों की नाराजगी

उ. प्र. में मा. मुख्यमंत्री योगी जी की कड़ी चेतावनी और एस्मा कानून लागू होने के बावजूद उ. प्र. लेखपाल संघ की 8 सूत्रीय मांगों को लेकर कलमबंद हड़ताल अनवरत जारी है। एस्मा (एसेंशियल सर्विस मैनजमेंट एक्ट) कानून अत्यावश्यक सेवाओं के अनुरक्षण के लिए लागू किया जाता है। एस्मा एक केंद्रीय कानून है जिसे 1968 में लागू किया गया था। लेकिन राज्य सरकारें इसे लागू करने के लिये स्वतंत्र हैं। सरकारें एस्मा लगाने का फैसला तब लेती हैं जब अति आवश्यक सेवाओं पर बुरा असर पड़ने की प्रबल आशंका हो। इस कानून को लागू करने से पहले इससे प्रभावित होने वाले कर्मचारियों को इसकी सूचना किसी लोकप्रिय समाचार पत्र या अन्य माध्यम से पहुँचायी जाती है। यह कानून अधिकतम 6 महीने के लिये प्रभावी होता है। अक्सर देखने में आता है, जब भी कोई कर्मचारी संगठन अपनी माँगो के मद्देनजर हड़ताल पर जाता है तो सरकार के द्वारा आंदोलन को दबाने के लिये एस्मा का सहारा लिया जाता है और अपनी दमनकारी नीति अपनायी जाती है।

उ. प्र. लेखपाल संघ के आंदोलन पर एस्मा का कोई असर दिखाई नहीं पड़ रहा है। वह मुख्यमंत्री जी की कड़ी चेतावनी के बाद भी अपनी मांगों पर अडिग हैं और कार्य बहिष्कार कर आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड़ में हैं। उ.प्र. के कई जनपदों में इस कानून के तहत कार्यवाहियां कर दी गयी है और कई जनपदों में इसका भय दिखाया जा रहा है। लेकिन कार्यवाहियों से बेख़ौफ़ लेखपाल पूरी जोश और ऊर्जा के साथ संगठित होकर कार्य बहिष्कार कर प्रशासन को दो टूक जवाब दे रहे हैं। नतीजा यह निकल रहा है, प्रदेश की सभी तहसीलों के आवश्यक कार्य बुरी तरह प्रभावित हो चुके हैं। स्कूली छात्रों, बेरोजगार युवाओं, पेंशन भोगी महिलाओं, सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों, रियल एस्टेट के कारोबारियों आदि को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है, जनमानस में रोष और अविश्वास बढ़ता ही जा रहा है।

लेखपाल लैंड रिकॉर्ड से लेकर हर वो कार्य करता है, जिसका जन सरोकार से सीधा संबंध होता है। वह भूमि अभिलेख रखरखाव और उनका अद्यतन, भू पैमाइश, कृषि गणना, पशु गणना, निर्वाचन, ग्राम विकास से संबंधित योजनाओं का क्रियान्वयन समेत 50 अन्य विभागों के भी काम करता है। लेखपाल का पद समूह ‘ग’ के तहत विज्ञप्ति निकालकर राजस्व परिषद द्वारा भरा जाता है। लेकिन तकनीकी और विशिष्ट कार्यों के करने के कारण इस पद की महत्ता और भी बढ़ जाती है।

उ.प्र. लेखपाल संघ को उ.प्र. राजस्व निरीक्षक संघ, उ.प्र. राज्य कर्मचारी परिषद, अटेवा पेंशन बचाओ मंच हरदोई, बार एसोसिएशन करनैलगंज , ग्राम प्रधान संघ, ग्राम पंचायत अधिकारी- ग्राम विकास अधिकारी समन्वय समिति उत्तर प्रदेश समेत दर्जनों कर्मचारी, अधिवक्ता और प्रधान संघों का समर्थन हासिल हो चुका है। जिससे सरकार भी कहीं न कहीं बैकफुट पर नजर आ रही है, वह हर वो हथकंडा अपना रही है, जो आंदोलन को समाप्त करने के लिए आवश्यक समझा जाता है।

लेखपालों को राजस्व विभाग की ‘बैक बोन’ माना जाता है। वह आम आदमी विशेष के सबसे बड़े वोट बैंक किसान से सीधे और सतत संपर्क में रहता है। उसके ही कंधों पर सरकार की समस्त जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी रहती है। चुनाव में भी पर्दे के पीछे से लेखपालों की महत्वपूर्ण भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता है। मतदाता सूची पुनरीक्षण से लेकर मतदान समाप्त होने तक लेखपाल भिन्न भिन्न रूप में अपने दायित्वों का निर्वाहन करता है। जानकारों की मानें तो लेखपालों की नाराजगी दूर नहीं की गयी तो आगामी आने वाले चुनावों में सरकार को इसके परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

राहुल यादव

लेखपाल झाँसी

मो. 9450771044

लेखपाल आंदोलित क्यों ?

उ.प्र. लेखपाल संघ अपनी 8 सूत्रीय मांगों को लेकर 3 जुलाई से कलमबंद हड़ताल पर जा रहा है। वह पूर्व में अपनी समस्याओं को विभिन्न माध्यमों से राजस्व परिषद और उ.प्र. शासन को अवगत करा चुका है। राजस्व परिषद प्रत्येक मांग को जायज मान चुका है, और अपनी प्रबल संस्तुति के साथ शासन के समक्ष अग्रसारित कर चुका है। लेकिन शासन स्तर पर मांगों के लंबित होने और कोई ठोस कार्यवाही होते ना देख अब संघ को मजबूरन आंदोलन का रुख अख्तियार करना पड़ रहा है।

उ.प्र. लेखपाल संघ की पहली मांग वेतन उच्चीकरण है, जैसा कि सभी जानते हैं, लेखपाल का पद तकनीकी के साथ साथ विशिष्ट श्रेणी का माना जाता है, वह राजस्व विभाग के साथ-साथ 50 अन्य विभागों का भी काम करता है, जिसका भू लेख नियमावली में स्पष्ट उल्लेख है। दूसरी मांग वेतन विसंगति से संबंधित है, कर्मचारी सेवा नियमावली के अनुसार समान कार्य करने पर समान वेतन पाने का अधिकार है, लेकिन लेखपाल संवर्ग में 16 वर्ष की समान सेवा पर कुछ लोगों को एसीपी के रूप में 2800 ग्रेड पे दिया जा रहा है तो कुछ लोगों को 4200 ग्रेड पे। जिससे की वेतन में विसंगति बनी हुई है। तीसरी मांग पेंशन विसंगति से संबंधित हैं, जिसमें 2001 व 2003 में चयनित लेखपालों की विभिन्न प्रशासनिक कारणों से नियुक्ति 1 अप्रैल 2005 के बाद हुई है, लेकिन प्रशिक्षण उससे पूर्व ही पूर्ण हो गया था। जिससे पुरानी पेंशन का लाभ नहीं मिल पा रहा है। चौथी मांग भत्तों में वृद्धि से संबंधित है, जिसमें समय के साथ बदलते परिवेश में साइकिल भत्ते के स्थान पर मोटरसाइकिल भत्ता, स्टेशनरी भत्ते समेत अन्य भत्तों को बढ़ाया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। पांचवीं मांग राजस्व उपनिरीक्षक सेवा नियमावली 2017 को कैबिनेट से पास कराये जाने विषयक है। छठी मांग लैपटॉप व स्मार्टफोन उपलब्ध कराने से संबंधित है, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और ई डिस्ट्रिक्ट पोर्टल पर इन संसाधनों के बिना काम किया जाना असंभव जान पड़ता है। सातवीं मांग प्रोन्नति से संबंधित हैं, देखने में आता है लेखपाल 35-40 वर्ष की सेवा देने के बावजूद बिना प्रोन्नत हुए लेखपाल पद से ही सेवानिवृत्त हो जाता है। अंतिम मांग आधारभूत सुविधायें एवं संसाधनों संबंधित है, किसी भी लोकसेवक के लिए बिना संसाधन कार्य किया जाना अत्यंत ही दुष्कर होता है।

विदित है, उ.प्र. सेवा नियमावली 1979 के अनुसार मान्यता प्राप्त संघो के ज्ञापनों पर विचार कर उनकी जायज समस्याओं के निराकरण का प्रयास किया जाने का प्रावधान है। लेकिन उ.प्र. लेखपाल संघ लगभग 2 वर्षों से अधिक समय से ज्ञापन और पत्र व्यवहार के माध्यम से अपनी समस्याओं से राजस्व परिषद और शासन के प्रत्येक पटल पर अवगत करा चुका है, लेकिन अभी तक इन मांगों पर कोई भी कार्यवाही अमल में नहीं लायी गयी है। वह कई दफा परिषद और शासन स्तर के अधिकारियों से वार्ता कर चुका है, लेकिन शासनादेश निर्गत ना होने के कारण वार्ता असफल ही साबित हुई है और मजबूरन लेखपाल संवर्ग को अगस्त- सितंबर 2016 में एक वृहद आंदोलन करना पड़ा था। परिणामस्वरूप उ.प्र. शासन के सर्वोच्च अधिकारी मा. मुख्य सचिव, मा. प्रमुख सचिव की उपस्थिति में लेखपाल संघ के प्रतिनिधि मंडल की मा. मुख्यमंत्री महोदय जी के साथ लेखपाल संवर्ग की 6 सूत्रीय मांगों पर सहमति बनी थी और मा. मुख्यमंत्री महोदय द्वारा शीघ्र समाधान के निर्देश निर्गत किये गये थे ।

मा. मुख्यमंत्री जी की सहमति एवं आश्वासन पर उ.प्र. लेखपाल संघ को आंदोलन स्थगित करना पड़ा था । लेकिन सरकार/ शासन द्वारा वादाखिलाफी की गयी।मार्च 2017 में नयी सरकार के गठन के बाद 11 अप्रैल 2017 को उ.प्र. लेखपाल संघ प्रतिनिधिमंडल द्वारा मा. महोदय से भेंट कर उक्त समस्याओं से अवगत कराया गया, जिस पर महोदय द्वारा शीघ्र समाधान का आश्वासन दिया गया था । अक्टूबर 2017 में पुनः सांकेतिक आंदोलन किया गया और 31 अक्टूबर 2017 को मा. अध्यक्ष महोदय के आश्वासन पर आंदोलन स्थगित किया गया था किन्तु शासन से अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए।

फरवरी 2018 में मा. मुख्यमंत्री महोदय के गोरखपुर भ्रमण के दौरान लेखपाल संवर्ग की समस्याओं से अवगत कराया गया था , किन्तु शासन द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया गया। इसके बाद 6 जून और 11 जून को नोटिस देने के बावजूद भी शासन माँगो के प्रति उदासीन बना हुआ है।

पूर्व की सरकार ने लेखपालों की प्रत्येक मांग को जायज माना था , जिसके लिये राजस्व परिषद द्वारा भी प्रबल संस्तुति की गयी थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम प्रतिनिधियों द्वारा लेखपाल संवर्ग की समस्याओं के निराकरण के लिए पत्र लिखे गये थे । निवर्तमान मुख्यमंत्री युगपुरुष योगी जी द्वारा भी उस समय सांसद रहते हुए स्वयं पत्र लिखकर राजस्व विभाग की इस महत्वपूर्ण कड़ी को संबल प्रदान किया गया था। आज लेखपाल संवर्ग प्रबल आशा के साथ न्याय की उम्मीद लगाकर अनुशासित ढंग से शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहा है। उसे बस एक ही उम्मीद है, इस बार शासनादेश निर्गत हो जायेगा।