गुना का गुनाह!

भारत में एक अन्नदाता ही है जो एक अरब तैंतीस करोड़ लोगों की जठराग्नि को शांत करता है, लेकिन जब इसी किसान की मेहनत पर प्रशासनिक बुल्डोजर चलने लगे तो खुदा भी खुद सोचने को मजबूर हो जाता है। उस समय उस मजबूर की आत्मा कितनी कचोटती होगी, इसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते है। इसमें कोई दोराय नहीं कि किसान अपनी सारी पूँजी खुले आसमान के नीचे बिखेर देता है, कई महीनों की दिन-रात की मेहनत होने पर भी उसे प्रकृति की रुसवाई का सामना करना पड़ता है, इसके साथ जब यही पूँजी यदि कर्ज से ली गयी हो और सामने प्रशासनिक लुटेरे नजर आए तो लगता है कि खुदकुशी के अलाबा कोई विकल्प नहीं है। गुना में एक मजबूर कृषक द्वारा यही गुनाह किया गया है। सुना है पीजी मॉडल कॉलेज की 20 बीघा जमीन किसी गब्बू भू माफिया ने कब्जाई और एक गरीब के कर्ज के उसमें 3 लाख लगवाकर बटाई पर दे दी। जब तक बौनी नहीं हुई तो किसी ने नाप की भी सुध नहीं ली, लेकिन जब फसल उगने लगी और किसान को अच्छी फसल की उम्मीद दिखी तभी गुंडे के रूप में नगर पालिका का प्रशासनिक अमला का हमला हो जाता है, उस भू माफिया से तो कोई कुछ नहीं कह पाता है, लेकिन एक मजबूर के साथ ज्यादती दिखाई जाती है। बटाईदार के भाई की ऐसी पिटाई की जाती है, मानो उसने दरोगा जी के बैल हंका लिए हो।

कहने को ये क्षेत्र महाराजा साहब की रियासत का है, लेकिन यहाँ कानून के रखवाले अंग्रेजों के जैसे काले कानून को मानने वाले ही हैं। भूलेख कानून बताते हैं कि फसल बुआई के बाद जमीन की पैमाइश नहीं की जाती है, क्योंकि ये फसल का अपमान होता है। किसी हरिजन का यदि जमीन पर 5 वर्ष से अधिक से कब्जा है तो उसे बिना निर्धारित प्रक्रिया के जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता है। बटाईदार को फसल क्षति होने पर मुआवजा का लाभ भी दिया जाता है ताकि वह अगली फसल लेने के लिये उचित प्रबंध कर सके। लेकिन नीति निर्माताओं की सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं, और उस किसान की मेहनत पर प्रशासनिक बुल्डोजर चल जाता है।

देश की आजादी के समय से ही हमारे यहां कई भूमि सुधार कार्यक्रम किये गये। जमींदार और आसामी के बीच की खाई को भरने के लिये कई सीलिंग कानून लाये गये, लेकिन हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कई सीलिंग कानून होने के बावजूद कोई 200 बीघा का मालिक बन जाता है, तो किसी के पास 2 बीघा भी जमीन नहीं है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत मे आज भी लगभग 56 फीसदी ग्रामीण आबादी भूमिहीन है, जो या तो मजदूरी करके भरण कर पोषण कर रही है या किसी की बटाई पर खेती करने को विवश हैं। अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब अन्नदाता ही अन्न के दाने-दाने को मोहताज हो जाएगा। गुना का गुनाह तो बानगी भर है, अगर यही हाल रहा तो कर्ज के बोझतले ना जाने कितने बेगुनाह किसान अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेंगे।

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